Saturday, October 27, 2018

डेरे के सफाई अभियान के बहाने स्वच्छता की बात (23 नवंबर, 2011)

दिल्ली में दो दिन और जयपुर में एक दिन के सफाई अभियान के बाद डेरा सच्चा सौदा के अनुयायी आज बीकानेर में हैं! राजस्थान और पड़ोसी राज्यों से अनुयायी लगातार पहुंच रहे हैं। मकसद है एक तो नापासर रोड स्थित इन्हीं के डेरे का निर्माण कार्य और दूसरा है शहर की सफाई का। डेरे वालों का कहना है कि वे दान में पैसा आदि नहीं लेते। श्रम लेते हैं और इसी श्रम से वे सब कुछ संभव कर लेते हैं। यानी डेरे की हजारों बीघा कृषि भूमि में खेती का सारा काम ये अनुयायी अपनी समयानुकूलता से पहुंच कर करते हैं। उपज से जो पैसा आता है उसी से डेरों पर होने वाले खर्चे चलते हैं। निर्माण के लिए ईंट, कंक्रीट, सीमेंट, बजरी और लकड़ी आदि वस्तुएं खरीदी जाती हैं। इन सबको जोड़ने का काम यह अनुयायी लोग श्रमदान से कर लेते हैं।
इस तरह से सामूहिक काम करने की परम्परा हमारे समाज में नई नहीं है। रेगिस्तान के हमारे इस भू-भाग में खेती के लिए यह परम्परा सदियों पुरानी है। स्थानीय बोली में इस पद्धति को ‘लास’ या ‘ल्हास’ कहा जाता रहा है। बदलते दौर में तकनीक और आपसी रिश्तों में आए बदलाव के चलते यह परम्परा बीते काल की बात होती जा रही है। इस तरह की परम्परा अलग-अलग नामों से कमोबेश देश में सभी जगह मिलती है। पंजाब में यह परम्परा कारसेवा के नाम से जानी जाती है।
आज हो रही सफाई को हमें इस प्रकार से भी देखना चाहिए--डेरे के अनुयायी एक अभियान के तहत सफाई कर जायेंगे। शहर के कितने हिस्से को साफ किया और सफाई से इकट्ठा हुए कचरे की ढेरियों को उठाया गया या नहीं? यह कहां-कहां से उठाया गया और कहां-कहां पड़ी रह गई, इसकी खबर भी कल के समाचार पत्रों से पता चल जायेगी।
सवाल है कि अपना शहर आज के बाद क्या हमेशा साफ रहेगा? जिस शहर को सात लाख लोग गंदा करने पर उतारू हों, उस शहर को नगर निगम के सात सौ की जगह सात हजार कर्मचारी भी लगा दिए जाएं तो क्या साफ रख पायेंगे? प्रतिबंध के बावजूद प्लास्टिक केरीबैग, थैलियां, धड़ल्ले से काम ली जा रही हैं। प्लास्टिक डिस्पोजेबल का भी बिना किसी संकोच के धड़ल्ले से उपयोग हो रहा है। जिनसे सीवर और नालियां रुकती हैं। हम अपने घर आंगन की सफाई करके कचरा नियत स्थान पर ना डालकर आलस्य में जहां कहीं भी डाल देते हैं। घर और घर का आंगन तो साफ हो गया, मोहल्ले का आंगन जहां-तहां कचरा डालने से गंदा हो तो किसे परवाह है? खुद लापरवाह हैं तो सफाई-कर्मी द्वारा इकट्ठा किए गए कचरे को नालियों में जाने से कौन रोकेगा! इन सबके चलते ऐसे सफाई अभियान केवल प्रतीकात्मक ही होकर रह जाएंगे। सार्थक तो तब माना जाये जब आम शहरी इसे संकल्प के रूप में भी अपनाए?
                                                     --दीपचंद सांखला
23 नवंबर, 2011

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