Monday, October 29, 2018

वॉलमार्ट से दुबला कौन (26 नवंबर, 2011)

खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को केंद्र सरकार ने मंजूरी दे दी है। इस पर टीवी-अखबारों में घमासान है। सरकार का निर्णय है इसलिए विपक्ष इसका विरोध कर रहा है। संसद को एक-दो दिन और न चलने देने का बहाना जो मिल गया। यही विपक्ष अगर सरकार में होता तो वो भी यही निर्णय लेता। तब शायद कांग्रेसी इसका रस्मी विरोध करते। बाजार को लेकर पिछले तीस वर्षों से यही नूरा-कुश्ती चल रही है। इस मंजूरी से जो बड़े व्यावसायिक घराने सीधे तौर पर प्रभावित होंगे, मीडिया को वो अपने तरीके से फीडबैक देंगे और जिनको विदेशी कंपनियों के साथ देश में व्यापार करना है वो अपने तरीके से। टीवी, अखबारों को इन दोनों ही तरीकों की प्रतिक्रियाओं को समुचित स्थान देना होगा। मीडिया यह तो बताता  है कि इनसे करोड़ों को रोजगार मिलेगा, वो यह क्यों छुपा जाता है कि इन करोड़-दो करोड़ के रोजगार के लिए कितने करोड़ की रोटी-रोजी छिन जायेगी। यही व्यापारिक घराने विज्ञापनदाता के रूप में टीवी अखबारों के माई-बाप बने हैं। इन मीडिया समूहों का विश्लेषण करेंगे तो पायेंगे कि यह उच्च वर्ग के लिए उच्च वर्ग द्वारा संचालित है अन्यथा देश की लगभग आधी आबादी को मीडिया में स्थान पाने के लिए अपराध, दुर्घटनाओं और प्राकृतिक विपदाओं का ही सहारा लेना पड़ता है।
बड़े विदेशी समूह जब भारतीय बाजार में आयेंगे तो उन भारतीय समूहों से ही प्रतिस्पर्धा करेंगे जो इस व्यापार में लगे हैं अन्यथा निम्न वर्ग की आधी आबादी के लिए जो बाजार है उसकी खबर कब बनी? यह बाजार तो पहले से कम शुद्ध और कम मात्रा बेचने को और उसका उपभोक्ता खरीदने को अभिशप्त है। इस आबादी का उच्च वर्ग से संबंध होगा भी तो इन बड़े बाजारों के सामान की पल्लेदारी करने से ज्यादा का नहीं हो सकता।
गांधीजी शुमाकर से बहुत प्रभावित थे। इसीलिए वे चाहते थे कि शहरों की बजाय गांवों का विकास हो, बड़े-बड़े कल-कारखानों की जगह छोटे कारखाने हों। छोटे-छोटे लोगों की जरूरतें पूरी हो, छोटे-छोटे लोगों का सम्मान हो।
अपने देश के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू इससे शायद सहमत न थे, वे पश्चिम से प्रभावित थे। बड़े-बड़े कारखाने, बड़े-बड़े बांध उनके सपने थे। देश उसी रास्ते पर चल पड़ा। बची-खुची  कसर नब्बे के दशक की विश्व बाजार की नई आर्थिक नीतियों ने पूरी कर दी। ऐसे रास्तों पर छोटे लोगों को कुचलना ही होगा। क्योंकि सबकी नजर अपने से ऊपर पर है, ऊंचे को हासिल करने पर जो नीचे है वो कुचला ही जायेगा।
इसलिए निम्न वर्ग को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि रिटेल स्टोर रिलायंस चलाता है या वालमार्ट। क्योंकि वो इस प्रतिस्पर्धा में है ही नहीं। इस दौड़ में मध्यम, उच्च मध्यम, उच्च और उच्च से उच्च वर्ग है। कुल आबादी का यह एक-चौथाई हिस्सा ही बाजार को प्रभावित करता है और रोशन भी।
--दीपचंद सांखला
26 नवंबर, 2011

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