Tuesday, October 30, 2018

बंद से असल प्रभावित कौन? (2 दिसंबर, 2011)

खबर है कि कल के व्यापारिक बंद से कोई 22 से 30 हजार करोड़ का कारोबार प्रभावित हुआ। यह बंद केन्द्र सरकार के उस फैसले के विरोध में था, जिसमें खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष पूंजी निवेश में 51 प्रतिशत तक की विदेशी भागीदारी की छूट दी गई है।
आजकल के बंद प्रतीकात्मक और राजनैतिक ही ज्यादा होते हैं। ऐसे बंदों से व्यापारियों को कोई बड़ा आर्थिक नुकसान इसलिए नहीं होता क्योंकि आजकल खरीददारी के दो मकसद रह गये हैं जरूरत और विलासिता। जरूरत है तो बाजार जब शाम को खुले तब या दूसरे दिन खरीददार बाजार पहुंचेगा ही। खरीददारी का दूसरा मकसद है विलासिता। विलासिता का एक प्रेरक होता है लालच और यह लालच जब तक पूरा नहीं होता है तब तक उसकी तीव्रता बढ़ती ही जायेगी, वो बाजार पहुंचेगा ही। मोटा-मोट देखें तो बाजार को नुकसान होता ही नहीं है।
ऐसे बंद नुकसान उस निम्न वर्ग का करते हैं जो इस बाजार में दैनकी पर या अन्य तरीकों से काम करके अपना और अपने परिवार का पेट पालता है। वो न तो रिलायंस का उपभोक्ता है और ना ही वालमार्ट का होगा। उसे तो अपने मोहल्ले की उसी दुकान से सामान लेना है जहां से रोजाना लेता है। चाहे वो दुकानदार अशुद्ध देता हो या अस्वच्छ। पिछले 64 सालों से आबादी के इस तीन चौथाई निम्न और निर्धन वर्ग को ऊपर उठाने के नाम पर सब योजनाएं बनी, लेकिन इनके आंकड़े में अब तक कोई चामत्कारिक कमी नहीं आयी है।
मीडिया को देखें-पढ़े तो इस मुद्दे पर पक्ष-विपक्ष के निपुणों-विशेषज्ञों के दो अखाड़े बन गये हैं। दोनों के ही अपने-अपने तर्क हैं और अपने-अपने आंकड़े। पिछले से पिछले लोकसभा चुनाव में सरकार चलाते हुए जिस भाजपा ने अपने चुनावी घोषणा-पत्र में खुदरा बाजार में 26 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का वादा किया था, वही अब इसके विरोध में ताल ठोंके हुए है। अन्य विपक्षी दलों में भी वामपंथी को छोड़ दें तो उनके विरोध के कारण नीतिगत कम दूसरे ज्यादा हैं। प्रधानमंत्री को लगता है और वो जानते भी हैं कि 25 साल पहले खुले बाजार की आर्थिक नीतियों को लागू करके जिस गंतव्य के लिए वो देश को ले चले थे उसमें ऐसे पड़ावों को टाला नहीं जा सकता। ऐसा नहीं है कि ऐसा जानने और मानने वाले अर्थ विशेषज्ञ विपक्ष के पास नहीं हैं। हो यह रहा है कि संसद में भी और राज्यों की विधानसभाओं में भी--विपक्ष चाहे कोई हो, वह बहस से बचता है और विरोध केवलमात्र विरोध के लिए करता है। संसद और विधानसभाओं के सत्रों पर रोज करोड़ों रुपये खर्च होते हैं। पर इसकी परवाह किसे है। क्योंकि इन सभाओं के अधिकतर सदस्य करोड़ों में जो खेलते हैं। ऐसे में आम आदमी की हैसियत तमाशबीन से ज्यादा की पाते हैं क्या आप.....?
--दीपचंद सांखला
2 दिसंबर, 2011

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