Friday, April 21, 2017

साढ़े सात घंटे के स्कूल

संसद और विधानसभाएं सुचारु चले कई-कई सत्र बीत जाते हैं। और जब चलती हैं तो ऐसे दृश्य देखने को मिलते हैं वैसे दृश्य अब सरकारी स्कूलों में भी नहीं देखे जाते हैं। अधिकतर सरकारी स्कूलों में अब तो संसद और विधानसभाओं में आये दिन दिखने वाले दृश्य भी दुर्लभ हैं। शिक्षक अधिकांश स्कूलों में ऐसे दृश्यों की नौबत आने ही नहीं देते हैं। स्कूलों में ऐसा माहौल ही नहीं होता कि बच्चे स्कूल की देहरी तक पहुंचें। चाहे उनके दाखिले उन स्कूलों में हो चुके हैं।
संसद-विधानसभाओं में सांसदों-विधायकों की तनख्वाह, भत्ते आदि बढ़ाने का बिल पास होने की खबर अखबार-टीवी में आती है तो अचम्भा होता है कि यह कब और कैसे सम्भव हो गया। क्योंकि सांसद और विधायक तो अधिकतर समय अध्यक्ष की कुर्सी के आगे ही खड़े पाए जाते हैं।
इन दिनों सभी शिक्षक संघ भी एकजुट हो गये हैं। सरकार ने सन् 2009 में शिक्षा का अधिकार कानून पास किया। उसे लागू करने की प्रक्रिया में स्कूल में विद्यार्थी के ठहराव का समय साढ़े सात घंटा कर दिया गया है। सरकार को भी सोचना चाहिए था कि विद्यार्थी स्कूल में तभी रहेंगे जब शिक्षक स्कूल में टिकेंगे, इसलिए शिक्षकों के साथ इस संबंध में विचार करना चाहिए था कि यह नई व्यवस्था व्यावहारिक है भी कि नहीं। तमाम शिक्षक संघ इसे अव्यावहारिक बता रहे हैं।
सरकारी स्कूलों का जो हाल हो गया है वह व्यावहारिक है क्या? इस संबंध में सरकार और शिक्षक समाज दोनों की जवाबदारी बनती है। सभी सरकारी स्कूल ना सही-कुछ तो ठीक-ठाक चलते ही होंगे--यह साढ़े सात घंटे का समय उचित नहीं है तो कम से कम जो स्कूल ठीक-ठाक चल रहे हैं उनका खयाल करके ही इसकी व्यावहारिकता जंचवा ली जाती।

वैसे शिक्षक संघों को इस ओर भी विचार करना शुरू करना चाहिए कि बाजारवाद के इस दौर में ढंग से चलने वाले स्कूल लंबे समय तक नहीं चल पायेंगे। स्कूल नहीं होंगे तो शिक्षक नहीं होंगे और जब शिक्षक नहीं होंगे तो फिर ये संघ किनके लिए चलेंगे?
                                                        -- 20 सितम्बर, 2011

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