Friday, April 14, 2017

पेट्रोल के दामों में बढ़ोतरी (16 सितम्बर, 2011)

कल रात के बारह बजे बाद से पेट्रोल का दाम 3.36 रुपये बढ़ कर 71.71 रुपये प्रति लिटर हो गया है। पिछले कुछ महीनों से सभी चीजों के दाम बेलगाम हो रहे हैं। सरकार कभी इसके लिए चिंतित दीखती है (होती नहीं) कभी बेबसी दर्शाती है। इसके अलावा वह कुछ कर भी नहीं सकती्रकिसी दूसरी पार्टी की सरकार होती तो कमोबेश ऐसा ही होता।
अखबारों में पेट्रोल की बढ़ती कीमतों का इतिहास और विभिन्न स्रोतों से प्राप्त बिना निवारणों के कुछ कारण गिना दिये गये हैं। कल के कुछ अखबारों मेंविनायक के इस संपादकीय की तरह कुछ संपादकीय भी हो सकते हैं। टीवी में आज इसे लेकर कुछ बहसें होगी। इसके बाद सरकार और मीडिया (टीवी-अखबार) चिन्ता की इस जिम्मेदारी से मुक्त हो जायेंगे। और विपक्षी दल देश में विभिन्न जगह कुछ पुतले जलाएंगे्रकुछ मुर्दाबाद करेंगे। सरकार को कोसेंगे। इसके साथ उनकी जिम्मेदारी भी खत्म।
सुबह से सड़कों पर वाहन लगभग उतने ही दौड़ रहे हैं जितने कल-परसों या परले दिन दौड़ रहे थे। सभी हाईवे उतने ही आबाद हैं जितने रोज होते हैं। ऑटोमोबाइल डीलर दीवाली पर बिकने वाले वाहनों की प्लानिंग में पिछले वर्ष से कुछ ज्यादा ही उत्साह में जुटे हैं। जबकि पिछले एक वर्ष में पेट्रोल के दाम लगभग बीस रुपये लिटर बढ़ गये हैं।
दो-पांच दिन में डीजल और रसोई गैस के दाम भी बढ़ने की सम्भावनाएं व्यक्त की जा रही हैं। दो-तीन महीनों में हो सकता है ऐसा ही सबकुछ फिर से हो।
चालीस वर्ष पहले समाजवाद के नाम पर कुछ उपक्रमों का राष्ट्रीयकरण हुआ और जोश-खरोश में सार्वजनिक क्षेत्र में कुछ नये उपक्रम भी शुरू हुए। चुनावों के खर्चे बढ़े तो नेताओं को अनाप-शनाप रुपयों की जरूरत पड़ने लगी। निजी उपक्रमों की ही तरह, सार्वजनिक उपक्रम से भी धन प्राप्त करने के रास्ते निकाल लिए गए। ट्रेड यूनियनें भी कुछ ज्यादा सक्रिय हुईं और उनमें भी जोर-जुल्म की टक्कर में अधिकारों की बात ज्यादा और जिम्मेदारी की बात कम से कमतर होती गई। इस तरह समाजवाद दो-पांच वर्षों में ही फेल हो गया।
उन्नीस सौ पचहत्तर के बाद के दस वर्षों में राजनीतिक अस्थिरता के चलते आर्थिक क्षेत्र में सबकुछ काम चलाऊ ही चलता रहा। सन् उन्नीस सौ चौरासी के बाद बनी सरकार ने वैश्वीकरण और विश् व्यापार के दबावों की आड़ लेकर देश की जनता को बाजार के हवाले कर दिया। तब से सभी बाजार से संचालित हैं और रहेंगे।
इन तीस वर्षों में बाजार को पनपाने के लिए सरकारी नौकरियों में तनख्वाह कितना गुना हो गई? फिलहाल नहीं बता सकता। सब बाजार के हवाले हैं और व्यापार-उद्योग और व्यवसाय फल फूल रहे हैं।
जिनके पास सरकारी नौकरियां नहीं ह्ंैरव्यापार को चलाने के लिए जिनके पास धन और विभिन्न सत्ता रूपों का सहयोग नहीं है। ऐसे ही लोग बेचारे हैं और हाशिये पर भी। विडम्बना यह है कि  यह हाशिया बहुत छोटा है और इसमें रहने वाला आबादी के कुल हिस्से का अस्सी प्रतिशत से ज्यादा है और बाकी के बीस प्रतिशत को अभ्यास पुस्तिका का पूरा पेज हासिल है। और  हाशिये के ये ही लोग जिजीविषा (जीने की इच्छा) शब्द की प्रयोगशाला बनेंगे। हकों की बात करने वाले समझ ले्ंरजिंदा रहने का हक उन्हीं को मिलने वाला है जो बाजार का हिस्सा बन जायेंगे।
वर्ष 1 अंक 24, शुक्रवार, 16 सितम्बर, 2011


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