Thursday, April 27, 2017

गुस्से के भुक्तभोगियों की व्यथा/अगली पीढ़ी के लिए ( 06 अक्टूबर, 2011)

गुस्से के भुक्तभोगियों की व्यथा
राजू शर्मा नाम के एक बस ड्राइवर का अपनी ही सवारियों से झगड़ा हुआ। नौबत यह आई कि सभी सवारियां उतर कर पैदल ही चल दीं। इस पर ड्राइवर इतना गुस्साया कि उसने बस से सवारियों को कुचल दिया। छह सवारियों की तत्काल ही मौत हो गई। एक सवारी को इलाज के लिए जब जयपुर ले जाया जा रहा था, उसने रास्ते में दम तोड़ दिया। घायलों की स्थिति स्पष्ट नहीं है, उनकी संख्या दस से बीस के बीच बताई जा रही है। कौन कितना घायल हुआ है, कितने पूर्ण स्वस्थ होंगे या उनमें से कितने आजीवन अक्षम या अपंग हो जायेंगे, बताना मुश्किल है। करौली जिले की यह घटना कल की है।
इस तरह की घटनाएं कमोबेश आए दिन होती हैं। घटना को ऊपरी तौर पर देखें तो पूरा दोष ड्राइवर के मत्थे है। हो सकता है राजू के घर से निकलते वक्त अपने परिवार में किसी से कहा-सुनी हुई हो। यह भी हो सकता है कि वह जिस ट्रेवल ऑपरेटर के यहां काम करता है, उसने सेवा में उसके बूते से बाहर कोई उम्मीद उससे की हो। आए दिन देखते हैं ये ट्रेवल एजेन्सियां पैसा कमाने की होड़ में बसों के रख-रखाव पर ध्यान देती हैं और ना ही चालक-परिचालक से जायज ड्यूटी लेती हैं। इसका खमियाजा इन बसों में यात्रा करने वाले यात्रियों को आए दिन भुगतना पड़ता है।
राजू शर्मा गिरफ्तार हो गया है। कानूनी प्रक्रिया ठीक-ठाक चली तो जो भी सजा मिलेगी उसे भुगतनी होगी। लेकिन वो सजा इस दुर्घटना के मृतकों के परिवार और घायलों उनके परिवार द्वारा ताउम्र भोगी जाने वाली पीड़ा के सामने कुछ नहीं है। इसका मतलब यह नहीं है कि राजू की सजा उसको मिलने वाली सजा से कई गुना होनी चाहिए।
समाज और शासन व्यवस्था क्या कोई ऐसा उपकरण और उपाय खोजेगी जिससे इस तरह की घटनाओं में निहित कारणों का निदान हो सके और ऐसी दुर्घटनाओं से बचा जा सके।
अगली पीढ़ी के लिए
आबादी बढ़ रही है तो आबादी क्षेत्र भी बढ़ेगा ही। रावण दहन के कार्यक्रम भी उसी अनुपात में बढ़े हैं। वर्षों पहले शहर के मुख्य स्टेडियम, जिसे आजकल डॉ. करणीसिंह स्टेडियम के नाम से जाना जाता है, पर एक ही आयोजन होता था। अब शहर में कई जगह रावण दहन के ऐसे छोटे-बड़े कार्यक्रम होने लगे हैं। रावण दहन के साथ ही आतिशबाजी भी शुरू हो जाती है जो दीपावली तक यानी बीस दिन तो चलेगी ही। आबादी के विस्फोट ने पहले ही हमारे हवा-पानी को काफी दूषित कर दिया है। प्रतीक रूप में ही सही, क्या हमें इस आतिशबाजी के विकल्पों पर विचार नहीं करना चाहिए? अन्यथा हम जो बीसवीं-इक्कीसवीं सदी के लोग हैं, आने वाली पीढ़ियां बहुत कोसेंगी हमें!

वर्ष 1 अंक 41, गुरूवार, 06 अक्टूबर, 2011

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