Friday, April 14, 2017

हम पियाला्रहम निवाला (12 सितम्बर, 2011)

मानसून के मेहरबान होते ही शहर की सड़कें उधड़ने लगती हैं। जिस तरह अन्ना के अनशन के समय टीवी चैनलों को चौबीसों घंटे पुरसने में कोई खास मशक्कत नहीं करनी पड़ी। उसी तरह इस मौसम में शहर के अखबारों में उधड़ी हुई सड़कें रोज-बरोज स्थान बना लेती हैं।
भ्रष्टाचार के खिलाफ बन रहे इस माहौल में हम पियाला-हम निवाला में भी चिक-चिक सबको सुनाई देने लगी है। शहर की बदहाल और टूटी-फूटी सड़कों के लिए उनको बनाने वाले ठेकेदारों को नोटिस मिलने लगे तो ठेकेदारों के संघ को इस पर गहरा एतराज हुआ है। एतराज इसलिए कि इसके लिए केवल ठेकेदार ही जिम्मेदार नहीं होते। प्रकारान्तर से उनका कहना है कि इस बदहाली के लिए हमारे काम की गुणवत्ता देखने-जांचने और भुगतान पास करने वाले अभियन्ता भी बराबर के जिम्मेदार हैं। उन्हें तो कोई नोटिस नहीं दिया जा रहा है? यानी काम में जो भी गड़बड़ियां की गई वो मिलीभगत से की गई। फिर सजा सिर्फ ठेकेदारों को ही क्यों? अब बेचारे अभियन्ता भी क्या करें। छठा वेतन आयोग लागू होने के बावजूद भी उनकी आर्थिक जरूरतें पूरी नहीं होती। ऊपर से मनचाही पोस्टिंग के लिए अपने वरिष्ठों और नेताओं को भी खुश रखना पड़ता है। नेताओं को अपने करिअॅर्रजिसमें चुनाव लड़ना प्रमुख है, के लिए्रपार्टी चलाने के लिए, विलासिता के लिए वो सब करना पड़ता है जिसे अन्ना नहीं चाहते।

एक रुपये में से कितने पैसे
जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम आज से चालू हो गया है। अस्पताल में इलाज के दौरान मुफ्त दवाइयों की योजना भी दो अक्टूबर से चालू हो जायेगी। राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री रहते हुए यह स्वीकारा था कि एक रुपये में पन्द्रह पैसे ही जरूरतमन्द तक पहुंचते हैं। इस बात को कहे बहुत बरस हो गये हैं। अभी पता नहीं कितना पहुंचता होगा। यानी सभी लोककल्याणकारी योजनाएं यदि पूरी ईमानदारी से लागू हों तो शायद देश में खुशहाली आते दो-चार वर्ष से ज्यादा नहीं लगेंगे।
                                    वर्ष 1 अंक 20, सोमवार, 12 सितम्बर, 2011

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