कल की खबरों में एक सुखद खबर यह है कि शहर की कई लेखिकाओं ने अपने एक अलग संगठन की जरूरत महसूस की और ‘शब्दश्री’ नाम से बना भी लिया। हालांकि इसे वे पंजीकृत करवाना चाहेंगी तो उसमें दिक्कत आ सकती है क्योंकि ‘सरकारी-बुद्धि’ पंजीकरण का प्रार्थना पत्र तब तक नहीं स्वीकारेगी जब तक उसके नाम के पीछे समिति या संघ न जुड़ा हो। खैर इस पंजीकरण के लफड़े में पड़ना भी नहीं चाहिए, क्योंकि बिना पंजीकरण के भी किसी समूह को बेहतर चलाया जा सकता है। जरूरत सोच और इच्छा शक्ति की है। देखना यही है कि शहर के लेखन सम्बन्धी ढेरों समूहों के ढर्रे पर ही ‘शब्दश्री’ चलेगा या वह अपना रास्ता कोई भिन्न चुनेगा। यद्यपि इस हलचल से कुछ ‘पुरुष’ लेखक असहज होते जरूर देखे गये। इस असहजता के लिये हमारे यहां की एक कैबत का स्मरण करना ही पर्याप्त है ‘लोग पैदल ने भी हंसे और चढ़्योड़ै ने भी’। शुभकामनाएं।
2 फरवरी
2013
1 comment:
ज़माना ही संगठनों का है
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