2007 में एक फिल्म आई थी ‘जब वी मेट’| करीनाकपूर शाहिद को बचपन से चल रही अपनी शादी की बात को घरवालों द्वारा पक्की करने की बात बताते हुए कहती है कि तब बचपन में अच्छी लगती थी लेकिन अब मैं बड़ी हो गई हूं ‘लेकिन घरवाले वहीं के वहीं हैं, वे अभी बड़े हुए ही नहीं|’
रामेश्वर डूडी के मामले में इससे ठीक उलटा है, वे अभी बड़े हुए नहीं है| जबकि राजनीति विस्तार खाती जा रही है| पिछली सदी के नवें दशक के मध्य में जब उन्होंने राजनीति शुरू की तब युवा हुए ही हुए थे| पिता के सार्वजनिक जीवन की विरासत थी, पैसा था, जातीय आधार था| इनके घालमेल से उनमें एक कॉम्पलेक्स, हेकड़ी का भाव घर कर गया| पिता ने अपनी सहज मिलनसारिता से जो हासिल किया, वह सब रामेश्वर को विरासत में ही मिल गया| कहते हैं सफलताएं जब लगोलग मिलती हैं तो उसका नुकसान यह होता है कि वह बहुत कुछ सीखने नहीं देती| डूडी भी इसी से ग्रसित हैं| उनको आज तक यह समझ में नहीं आया कि राजनीति बड़ी निर्मम होती है, वह रगड़के देकर चलती है| डूडी के पास जाति और धन का कवच है सो बचे हुए हैं अन्यथा राजनीति की मुख्यधारा से कभी बाहर हो लेते|
कल्ला बन्धुओं की ही तरह लाभ पहुंचाकर समर्पित समर्थकों की एक जमात भी बना रखी है डूडी ने| लेकिन ये समर्थक रहेंगे तभी तक, जब तक उन्हें लाभ मिलता रहेगा, जिस दिन लाभ पहुंचाने की स्थिति में डूडी नहीं रहेंगे, उनमें से अधिकांश छिटककर कहीं और देखे जाएंगे| सांसद बने डूडी को शायद वहम हो गया था कि इसका श्रेय केवल उन्हें ही है, जबकि पार्टी की साख भी और सामने वाले उम्मीदवार की हैसियत के मानी भी बहुत कुछ होते हैं| सांसद का चुनाव हारते देर नहीं लगी| और तो और नोखा जैसे अपने विधानसभा क्षेत्र में पिता की पुण्याई भी आडे नहीं आई, वहां भी चुनाव हार गये| कन्हैयालाल झंवर बिना जातीय व बिना पार्टी आधार के जीत गये| मानो तब से डूडी ‘उथला’ करते घूम रहे हैं| वह तो ठीक यह रहा कि जिलाप्रमुख बन गये, जिलाप्रमुखी का चुनाव सांसद और विधायकी जैसा तो होता नहीं है| अधिकांशतः दंद-फंद से लड़ा जाता है और आपके पास धन-बल और जाति-बल है तो जिलाप्रमुखी मिलना बहुत मुश्किल भी नहीं होता| जीतने की गुंजाइश दिखती है तो पार्टी भी उम्मीदवार बना देती है| वैसे भी डूडी अपने जिलाप्रमुख के कार्यकाल में कार्यालय में आज तक कुल जमा तीन अंकों की गणना तक भी शायद ही गये हैं|
झंवर को मंत्री का दर्जा मिलने के बाद से ही मानों डूडी का सुख-चैन छिन गया है| उनसे न निगलते बन रहा है और न ही उगलते| लगता यही है कि अब वह इधर-उधर होेने के संकेत दे- देकर कांग्रेस से मोलभाव करना चाह रहे हैं तो भाजपा से भी| उनकी परेशानी है कि उनकी वर्तमान पार्टी में उनके इस भाव पर कान नहीं धरे जा रहे हैं| इसके चलते भाजपा उन्हें झपटने को तैयार बैठी है, शर्तें भी डूडी की भारी नहीं लगेंगी उन्हें| कुछ न कुछ तो पार्टी में जुड़ेगा ही| उधर कांग्रेस को लगता हैं कि डूडी जो चाहते हैं वह ताकड़ी में ज्यादा भारी है बनिस्बत उनसे पार्टी को होने वाले लाभों के|
शहर भाजपा अध्यक्ष शशि शर्मा का डूडी से पड़ोसी धर्म निभाने के इस उतावलेपन का कारण यह भी हो सकता है कि वह खुद इस तरह ही सही अपनी पार्टी में कुछ हैसियत तो बना ही लेंगे| डूडी की हैसियत कम हो भी जायेगी तो उन्हें क्या?
12 फरवरी, 2013
No comments:
Post a Comment