Thursday, February 21, 2013

हकों के लिए हड़ताल, कर्तव्यों में कोताही


शहर बीकानेर में कल दो अलग-अलग नजारे थे। एक तरफ ग्यारह कर्मचारी संघों के आह्वान पर देश भर में रही दो दिवसीय हड़ताल के पहले दिन का असर यहां भी देखा गया तो दूसरी ओर प्रशासनिक सुधार विभाग का औचक निरीक्षण पर आया दल कार्यालय समय शुरू हो जाने के बाद जिस-जिस महकमे में भी पहुंच पाया वहां के अधिकांश अधिकारी-कर्मचारी नदारद मिले। सबसे बुरा हाल संभाग के सबसे बड़े और प्रदेश के कभी प्रतिष्ठित रहे पीबीएम अस्पताल का देखा गया। वहां कुल 195 में से 97 डॉक्टर ही पहुंचे हुए थे यानी कुल जमा के आधे से भी कम| मोबाइल खड़खड़ाए तो उनमें से कुछ तो (थे जैसे ही) ड्यूटी पर पहुंच गये। अधिकांश डॉक्टर ड्यूटी के समय अपने घरों पर फीस बटोरते मिलते हैं। अन्य महकमों का हाल भी पीबीएम से बेहतर नहीं था।
दूसरी ओर आम जन-जीवन से रोजमर्रा जुड़े महकमों जैसे राजस्थान रोडवेज, राष्ट्रीयकृत बैंकों और अन्य महकमों में भी हड़ताल मुकम्मल रही। ऑटो रिक्शा वालों की हड़ताल मुकम्मल इसलिए नहीं हो पायी क्योंकि उनके शायद यह समझ नहीं आया कि जिन मांगों के लिए हड़ताल हो रही है उनसे उनका कितना वास्ता है। वैसे भी आधे से अधिक ऑटो चालक ध्याड़िये हैं और वह जिस भी ऑटो को चलाते हैं उसके मालिक व्यापारी होते हैं।
शहर में घटे इन दोनों नजारों को जोड़ कर बात करने का मकसद कुछ दूसरा है। इस पर दो राय नहीं हो सकती कि कर्मचारियों की मांगें जायज हैं तो उन्हें माना ही जाना चाहिए। हड़ताल की नौबत ही क्यों आती है। लेकिन कल जहां हड़ताल थी उन महकमों में कल यदि हड़ताल नहीं होती और वहां भी प्रशासनिक सुधार विभाग का दल यदि पहुंचता तो क्या वहां का नजारा दूसरा होता? सभी सरकारी दफ्तरों में अधिकांश अधिकारी कर्मचारी समय के पाबंद नहीं हैं। दफ्तर पहुंच भी जाते हैं तो उनमें से अधिकांश की कार्यशैली में तत्परता लगभग नदारद पायी जाती है। बिना कुछ ऊपर का लिए काम करना अधिकांश को खारा-जहर लगता है। अरे भई छठे आयोग के वेतन मिलने के बाद जब आपकी पांचों घी में हैं और अंगूठा यदि कुछ बाहर भी है तो आपकी मांगों के प्रति सहानुभूति है! पर क्यों नहीं समय पर दफ्तर पहुंचते हो, क्यों नहीं पूरे दिन निष्ठा और तत्परता से बिना कुछ लिए काम करते हो! कर्मचारी कह सकते हैं-कर्तव्यहीन और भ्रष्ट आचरण केवल हममें ही थोड़े है, व्यापारी और नेता भी भ्रष्टाचारी हैं। इन नेताओं और व्यापारियों के कुकर्मों में सरकारी अधिकारी-कर्मचारी सहयोगी बनने से इनकार कर दें तो देश में होने वाले कुल भ्रष्टाचार का अधिकांश फुर्र हो जायेगा और ऐसी स्थिति में सर्वाधिक राहत देश की आबादी के उस अधिकांश को मिलेगी, जो जीवन-यापन की न्यूनतम जरूरतों से भी वंचित है।
लगभग आधी आबादी को भरपेट पौष्टिक खाना, रहने को छत और तन ढकने भर को कपड़े हासिल नहीं हैं वहां के आंकड़ों में प्रतिव्यक्ति मासिक आय पांच हजार के लगभग पहुंचना कम हास्यास्पद नहीं है। देश की आबादी का बहुत छोटा-सा हिस्सा जिसमें धन्ना सेठ, व्यापारी, नेता और सरकारी कॉरपोरेेट अधिकारी-कर्मचारी शामिल हैं, मोटा माल हासिल कर रहे हैं, बावजूद इसके उनकी हवस पूरी होने का नाम नहीं ले रही दूसरी ओर आबादी का दूसरा बड़ा हिस्सा आज भी जीवन जीने भर की जद्दोजेहद में लगा है। इस हकीकत पर नहीं विचारते हैं तो क्या अपने को मनुष्य कहलाने का हक भी है हमें...?
21 फरवरी 2013

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