Friday, February 1, 2013

पुष्करणा सावे के बहाने शादी-पार्टियों पर बात


पुष्करणा समाज का सावा कल सम्पन्न हो गया। इस सावे का महत्त्व इसलिए भी था और है कि, सावे का मुहूर्त विभिन्न दूल्हे-दुल्हन के नाम से निकलवाकर शिव-पार्वती के विभिन्न नामों से निकलवाया जाता है और उसी मुहूर्त पर समाज के लोग अपने लड़के-लड़कियों का विवाह करना तय कर लेते हैं। शिव-पार्वती के नाम से निकले सावे में दूल्हा खिड़किया पाग में विष्णु रूप से बरात लेकर जाता है और बराती अपने गान में महादेव का और छीकी में लक्ष्मी रूप कमला का आह्वान करते हैं। इस गड्ड-मड्ड सेविष्णु-लक्ष्मी शिव-पार्वती के एकमेक होने का भाव प्रकट होता है।
सावे का बड़ा सामाजिक महत्व था। फिजूलखर्ची के बराबर होती थी, घोड़ी बैंड- बाजा, विवाह वाले दिन खाना इसलिए नहीं कि लड़की वालों के घर किन्यावल (व्रत) होती थी। विवाह वाले दिन को छोड़कर मुहूर्त अनुसार चार बार खाने सादगीपूर्ण तरीके से होते थे लेकिन सिर्फ सगे-सम्बन्धी और परिजनों के। तब बर्तन-भाण्डे सहयोग से इकट्ठे कर लिये जाते थे, टैन्ट होते इसलिए नहीं थे कि सहकार के चलते वे चल नहीं सकते थे। मुहल्ले के खाली पड़े बड़े-बड़े मकानों या चौक वाले मकानों में खाना हो जाया करता था। इसलिए भवनों की जरूरत नहीं होती थी। विभिन्न जातियों के यहां दूसरी जात के लोग सामान्यतः खाने पर बुलाये जाते नहीं थे। एक तथाकथित ऊंची जाति तो दुभान्त के लिए बदनाम इसलिए थी कि वहां साहु-काउ दो तरह का खाना बनता था।
बरी (दुल्हन के शृंगार का सामान) थालियों में सजकर जाती थी, हैसियत प्रदर्शन का यह माध्यम भी था तो दहेज जैसा दिखावा नहीं था। शादी बाद लड़की वाले बिना दिखावे के बन्द पेई (पेटी) में लड़की की जरूरत का सामान भेज देते थे। यह सब लीक पीटने के हिसाब से होता अब भी है, रूप बदल गया है, भाव की जगह दिखावे ने ले ली है।
मीडिया वाले इस मौके पर जिस तरह से इसे प्रचारित करते हैं, या सुर्खिया देते हैं वह आधा सच है या पौना! हां, मीडिया अच्छी लगने वाली बातों को भी ज्यों की त्यों बताकर बढ़ा-चढ़ा कर बताने लगा है। यह प्रवृत्ति अच्छी नहीं, धीरे-धीरे मीडिया से भरोसा उठ जायेगा, जो उठना शुरू हो गया है| यह पुष्करणा सावे अपने मकसद, उद्देश्य, भाव और सादगी से भटक गये हैं| कुछ घर-परिवार अब भी बडेरों के भाव को बचाये रखने की असफल या अधूरी कोशिश करते दिखाई देते हैं, लेकिन उन्हें सहयोग, समर्थन और सुर्खियां नहीं मिलती!
कानफोड़ डीजे, पटाखे, बैण्ड-बाजे बजने लगे हैं| लगातार बढ़ते आइटमों के साथ बड़े-बड़े खाने होने लगे हैं। बिना भवन या बिना टैन्ट के विवाह समारोह की कल्पना करना लगभग असम्भव हो गया है| जूठा छोड़ना तो जैसे रीत बन गई हो! स्टालों के साथ प्लास्टिक डिस्पोजेबल ने जिस तरह जगह बना ली है वह भारी चिन्ता की बात इसलिए होनी चाहिए कि यह प्लास्टिक स्वतः कभी नष्ट नहीं होता और जब किया जाता है तो जहरीली गैसें छोड़ता है। सहकार की एक बहुत अच्छी रीतबान-भरावकी जगह लिफाफों ने ले ली है तो आकार में बड़ी दीखने वाली पैकिंग में गिफ्ट दिये जाने लगे हैं, जिनमें से अधिकांश काम के नहीं होते और पुनः पैकिंग कर आगे से आगे दिया जाता रहता है।
लिफाफों में परिवर्तित हुई बान को बिना उसके महत्त्व को आंके कई नव धनाढ्य हेकड़ी में  तो कुछ समाज-सुधारक बुराई मान कर लेने से इनकार करने लगे हैं, तब होना तो यह चाहिए कि यदि यह बुराई है या आपको बान की जरूरत नहीं है तो फिर दूसरों को देते समय वे संकोच क्यों नहीं करते? सभी रीतें बुरी नहीं हैं, हम उन्हें दिखावे के साथ बरतने लगे हैं इसलिए बुरी हो गई हैं। बस इसे ही समझने की जरूरत है।
1 फरवरी 2013

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