Thursday, February 7, 2013

‘पौरुषपूर्ण’ लोग मीडिया पर भी काबिज!


1994 में राजीवराय निर्देशित एक फिल्म आई थी-मोहरा। इस फिल्म में रविना-अक्षयकुमार पर फिल्माए और आनन्द बक्षी के लिखे एक गानेतू चीज बड़ी है मस्त-मस्तने बड़ी धूम मचाई थी। इस गाने की लोकप्रियता के बाद रविना टण्डन मस्त गर्ल कहलाने लगी थी। भारतीय सिनेमा ने यह मान लिया है कि सफलता का मानक एक ही है वह यह कि अधिकांश दर्शक क्या देखना चाहते हैं। इसलिए वह दिखाते वक्त यह भूल जाता है कि स्त्री को वह चीज या वस्तु कह कर उसके मानवीय अस्तित्व को ही नकार रहा है। समाज में स्त्री की सामान्यतः स्थिति भी यही है, वह दोयम हैसियत का जीवन जीने को मजबूर है। स्त्रियों की स्थिति उन वर्ग समूहों में और भी विकट देखी जाती है जो समूह समाज में दूसरी-तीसरी और चौथी हैसियत में गुजर-बसर करने को मजबूर हैं। इन समाजों में स्त्री का दर्जा एक पायदान और नीचे खिसक कर तीसरे-चौथे और पांचवें दर्जे तक पहुंच जाता है।
स्त्री के बारे में इसी सोच का एक परिणाम कल और आज देखने में आया। उत्तरप्रदेश में उसी समाजवादी पार्टी की सरकार है जिसके सुप्रीमो मुलायमसिंह यादव अपने को उन राममनोहर लोहिया का उत्तराधिकारी मानते हैं जिन लोहिया को भारतीय राजनीति में स्त्री अस्मिता का सबसे बड़ा हिमायती माना जाता है। इसी सरकार के एक मंत्री ने कल प्रदेश के एक जिले सुल्तानपुर में आयोजित सरकारी कार्यक्रम में सार्वजनिक रूप से अपनी मानसिकता का प्रदर्शन किया। उन्होंने उस जिले की वर्तमान और निवर्तमान कलेक्टरों की सूरत का बखानचीजमानसिकता से किया। योग से यह दोनों अधिकारी महिला हैं।
मंत्री ने तो जो किया सो किया, कई राजनेता अकसर कुछ ऐसा ही करते रहते हैं। सामान्यतः समाज का जैसा मुखर रूप है, उनके नुमाइन्दे वैसा ही तो कुछ करेंगे। लेकिन आज तकलीफ तब ज्यादा हुई जब तथाकथितराष्ट्रीय स्तर के अखबारों में इस खबर के साथ उन दोनों महिला अधिकारियों के फोटो कुछ इस तरह शाया किये गये कि पाठक यह स्वयं निर्णय कर लें कि मंत्री ने इन दोनों अधिकारियों की सूरत की जो तुलना की, वह सही है या गलत।
जिस तरह के राजनेता चुन कर रहे हैं या जनता भेज रही है वह होंगे तो वैसे ही जैसा जनता का वह प्रभावी समूह जो शेष को हांकता है। पर इस मीडिया को क्या हो गया है, क्या इसीपुरुषीय मानसिकताके लोग ही टीवी-अखबारों में छा गये हैं? क्या इन टीवी अखबारों में सभी एक जैसे है, कोई एक-आध भी आगाह करने वाला नहीं है कि, भाई! इन महिला अधिकारियों का फोटो छापने की क्या जरूरत है, क्यों इनको नुमाइश बना रहे हो। स्थानीय जुमले में कहें तो लगता यही है कुएँ में ही भांग पड़ गई है। सभी प्रभावी जगहों पर पुरुष काबिज हैं और ये पुरुष किसी की अस्मिता की कीमत पर भीरसलेने से नहीं चूकते।
आपमते यह सब समझ आए तो अब सुधरने का समय गया है| सोशल साइट्स पर समाज के वे सभी जो दूसरे-तीसरे-चौथे-पांचवें दर्जे का जीवन यापन करते हैं उनके मुखर नुमाइन्दे इस तरह की मानसिकता को चुनौती देने लगे हैं। इनमें दलित और महिलाएं ज्यादा आगे हैं। कम से कम मीडिया को तो आत्मावलोकन शुरू कर देना चाहिए।
7 फरवरी 2013

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