Thursday, November 22, 2018

दाता की स्पर्द्धा है जहां.... (30जनवरी, 2012)

आज के अखबारों में फोटो सहित एक खबर है जिसमें बताया गया है कि कुछ भामाशाहों के सहयोग से ‘रॉक ऑन ग्रुप’नामक संस्था ने 90 क्विंटल गेहूं का निःशुल्क वितरण करवाया है। इसके लाभान्वितों में कुछ जरूरतमंद और कुछ ऐसी संस्थाएं हैं जो कम मूल्य में भोजन उपलब्ध करवाती हैं। समर्थ सामाजिकों में इस तरह के विसर्जन भाव का होना उल्लेखनीय है। चाहे वो मकर संक्रांति के बहाने हो या फिर बसंत पंचमी के अवसर पर। लेकिन इस तरह के विसर्जन को दान कहना या दाताभाव से फोटो साया करवाना कितना उचित है, यह विचारणीय है। देखा गया है कि टीवी अखबार वाले भी ऐसों को सुर्खीयां देने से नहीं चूकते। ऐसे अवसरों पर प्रेस फोटोग्राफर सामने वाले से लगभग माजना लेने की हद तक न केवल मुद्राएं बनवा लेते हैं बल्कि एक से अधिक रीटेक भी करवा लेते हैं। फोटो खिंचवाने वाले बहुत ही सहज भाव से यह करते भी हैं!
ऐसा नहीं है कि मुद्रा और वस्तुओं का विसर्जन करने वाले सभी उसको विज्ञापित ही करते हों! कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें विज्ञापित करने के अवसर ही नहीं मिलते। लेकिन बहुत से संस्कारित ऐसे भी होते हैं जो यह सब करते तो हैं लेकिन दाताभाव से नहीं। ऐसे लोग भारतीय परम्परा के अनुसार उॠण होने के भाव से ऐसा करते हैं। यानी जिस समाज में कुछ कर सकने का सामर्थ्य हासिल किया, उस समाज के आप प्रति ॠणी हुए, ॠणी हैं तो उससे उॠण होना आपका धर्म है। धर्म उनके प्रति जो ऐसी सुविधाओं से वंचित हैं जो आपको हासिल है। परम्परा के उल्लेख के साथ गुणीजन ऐसा बताते रहे हैं, न केवल गुणीजन बल्कि आधुनिक साहित्य सर्जन में भी यह पढ़ा जा सकता है।
सुप्रसिद्ध कवि अज्ञेय की इन दो पंक्तियों का उल्लेख मौजूं होगा, तल्ख जरूर ह्रै
दाता की स्पर्द्धा हो जहां, मन होता है मंगते का।
दे सकते हैं वही जो चुप, झुककर ले लेते हैं।
-- दीपचंद सांखला
30 जनवरी, 2012

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