Saturday, November 3, 2018

ढलान पर अन्ना आंदोलन (30 दिसंबर, 2011)

जनलोकपाल बिल को लेकर अन्ना के तीसरे दौर का अनशन शुरू होने के स्थान, समय और अवधि तीनों पर असमंजस बना रहा और अंततः 27 दिसंबर से तीन दिन के लिए मुम्बई में शुरू हुआ!
लेकिन दूसरे ही दिन अन्ना मंच पर लगभग उखड़े देखे गये। कारणों में अन्ना का स्वस्थ न होना और आमजन में अगस्त वाला उत्साह ना होना माने गये। मृत्यु से न डरने की बात करने वाले अन्ना स्वास्थ्य कारणों से धैर्य खो बैठेंगे इसकी उम्मीद नहीं थी। आमजन के उत्साह की कमी ही मुख्य कारण माना जा सकता है। अवाम में उत्साह में कमी का बड़ा कारण टीम अन्ना को माना जा सकता है। कांग्रेस लगातार यह साबित करने में लगी रही कि टीम अन्ना खुद भी दूध की धुली नहीं है और इसमें सफल भी होती दिखती है। कांग्रेस ने योजनाबद्ध तरीके से किरण बेदी और अरविन्द केजरीवाल के पुराने मामलों को उघाड़ा। इसीलिए गांधी शुद्ध साध्यों के साथ सार्वजनिक जीवन में काम करने वालों का जीवन साफ-सुथरा होने पर जोर देते हैं। गांधी को अपने शुरुवाती जीवन में कुछ कमियां महसूस होती थीं जिनका निर्मल मन से उल्लेख उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय होने से पहले लिखी अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में किया है। इसीलिए पिछले जीवन को लेकर कोई आरोप उन पर नहीं लगे। गांधी ने अपनी आत्मकथा में कुछ ऐसी स्वीकारोक्तियां की, जिनके बारे में उनके अलावा किसी को पता नहीं था। इसलिए शासकों और अन्यों को तो क्या स्वयं गांधी के अपने मन को भी अपने पर अंगुली उठाने का मौका नहीं मिला। किरण बेदी और अरविन्द केजरीवाल को गांधी की यह सीख लेनी चाहिए थी। बल्कि इन दोनों का मामला तो और भी गंभीर था। उन पर अभी तक जो भी आरोप लगे वे सार्वजनिक जीवन में सक्रिय होने के बाद के हैं।
स्वयं अन्ना का वैचारिक आधार कमजोर था इसलिए निर्णय की उनकी निर्भरता अपने विश्वसनीयों पर रही। और विश्वसनीयों में मुखर किरण और अरविन्द की जनलोकपाल बिल के ड्राफ्ट से टस से मस न होने की हेकड़ी थी या ‘मैं तो वही खिलौना लूंगा’ जैसा बालहठ, अभी समझना बाकी है। फिर हिसार उपचुनाव में कांग्रेस विरोध जैसे शॉर्टकट अपनाने से भी उनकी विश्वसनीयता कम हुई।
इस आन्दोलन पर पूर्व के अपने आलेखों में उठायी गयीं बातें और शंकाएं निर्मूल नहीं थी। बानगी के लिए तीन उद्धरण्--
-- लोकपाल बिल पर बनी संयुक्त कमेटी में सरकार की ओर से शामिल नेताओं की अफसराना हेकड़ी और सिविल सोसायटी के नुमाइंदों के अड़ियल रुख के चलते बात बनते-बनते ना बनी। दोनों पक्षों को समझना चाहिए कि व्यावहारिक और भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल बिल का लागू होना समय और लोक की पुरजोर इच्छा है और ऐसा दृढ़ इच्छाशक्ति से सम्भव भी है।                   
(22 अगस्त 2011)
-- जनलोकपाल बिल के लिए चल रहा आन्दोलन जो असल में भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन है --आज अन्धेरे चौराहे पर खड़ा नजर आ रहा है। दरअसल एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में आप उस व्यवस्था के अन्दर जो कुछ सम्भव हो सकता है उससे ज्यादा की उम्मीद करना विफलता को निमन्त्रण देना है। टीम अन्ना में ऐसी सोच रखने वाले स्वामी अग्निवेश को टीम ने किनारे कर दिया है--बड़े पैमाने पर मिल रहे जन समर्थन से शायद टीम अन्ना के नीतिनिर्धारक यह भूल रहे हैं कि हम जिनके खिलाफ लड़ रहे हैं वो चाहे कितने भी भ्रष्ट हों, आये तो लोकतान्त्रिक तरीके से चुन कर ही हैं। अलावा इसके हर निर्णय की एक प्रक्रिया भी तय है। टीम अन्ना को इस तरफ भी विचार करना चाहिए। अन्यथा जन-सैलाब यदि निराश होगा तो बड़ी जिम्मेदारी टीम अन्ना की भी मानी जायेगी।               
(25 अगस्त 2011)
-- अन्ना टीम की महत्त्वपूर्ण सदस्य किरण बेदी ने कल मंच पर जिस तरह का दृश्य उत्पन्न किया वह निराशा और कुंठा की उपज थी--ऐसी निराशा और कुण्ठा तभी उपजती है जब आप अतार्किक उम्मीदों पर अड़े रहते हैं। टीम अन्ना में तर्कों से बात करने वाले जस्टिस संतोष एम हेगड़े और स्वामी अग्निवेश लगभग अलग-थलग हो गये हैं। अन्ना खुद निर्मलमन और मासूमियत लिए तो लगते हैं लेकिन किसी भी बड़े आन्दोलन को नेतृत्व देने वाले का वैचारिक आधार पुख्ता होना जरूरी होता है अन्यथा उसके बिखरने के खतरे बने रहते हैं। महात्मा गांधी और जयप्रकाश नारायण इसके उदाहरण हैं, जिनके अपने वैचारिक आधार थे। यदि ऐसा होता तो अन्ना टीम के चेहरों पर निराशा और व्यवहार--बोलचाल में कुण्ठा नहीं आती।    (27 अगस्त 2011)
--दीपचंद सांखला
30 दिसम्बर, 2011

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