Thursday, November 1, 2018

भ्रष्टाचार का टीका नहीं है लोकपाल (21 दिसंबर, 2011)

केन्द्रीय कैबिनेट ने लोकपाल विधेयक को मंजूरी दे दी है। हो सकता है, संसद के इसी सत्र में इसे कानून का दर्जा दे दिया जाय।
अन्ना के आन्दोलन से जुड़े लोग इस विधेयक से शायद संतुष्ट न हों, क्योंकि उन्हें यह लगता है कि जनलोकपाल का मसौदा यदि ज्यों का त्यों पारित होता तभी देश से भ्रष्टाचार समाप्त हो सकता है। लेकिन क्या सचमुच ऐसा संभव है, शायद नहीं। क्योंकि भ्रष्टाचार केवल व्यवस्थागत बुराई नहीं है। जिस तरह एचआईवी संक्रमित अपनी रोगप्रतिरोधक क्षमता खो बैठता है, लगभग वैसे ही जैसे कोई व्यक्ति इस व्यवस्था के संपर्क में आता है उसके भ्रष्टाचार से संक्रमित होने की आशंका बन जाती है। जिस तरह एचआईवी संक्रमित व्यक्तियों में से कई खुद उससे पीड़ित नहीं होते लेकिन माना जाता है कि अपने संपर्क में आने वाले को संक्रमित अकसर कर देते हैं। जैसे--आजकल झूठ के बिना काम नहीं चलता, कुछ लिए-दिए बिना काम करवाना मुश्किल है, हमने समाज सुधारने का ठेका थोड़े ना ले रखा है--अपना काम निकाल लो आदि-आदि जुमले अकसर सुनने को मिलते हैं।
जनलोकपाल बिल के आलोचक की इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि वो एक समानांतर व्यवस्था हो जाएगी जिससे दोनों में टकराव और अराजकता की संभावना हमेशा बनी रहेगी। दूसरा, जनलोकपाल मसौदे के आधार पर बनी वह व्यवस्था खुद इतनी बड़ी होगी कि खुद उसे भ्रष्टाचार जैसी बुराई से बचाना मुश्किल होगा। इस तरह की शंकाओं को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता।
कहने का मतलब यही है कि किसी भी लोकपाल विधेयक के मसौदे को आप भ्रष्टाचार उन्मूलन के टीके के रूप में प्रचारित नहीं कर सकते। हां! एक उपाय जरूर हो सकता है--उसे जितना कारगर बना सकते हैं बनाया जाना चाहिए। जिस तरह किसी भी महामारी से बचने के लिए बाहरी उपायों के साथ-साथ खुद में रोग-प्रतिरोधक क्षमता को विकसित करना जरूरी होता है, उसी तरह भ्रष्टाचार रूपी इस सामाजिक और व्यवस्थागत बीमारी से निबटने के लिए प्रत्येक को अपने भीतर भ्रष्टाचार की नैतिक और कर्तव्यनिष्ठ प्रतिरोधक क्षमता को विकसित करना जरूरी है। यह मुश्किल जरूर है लेकिन नामुमकिन नहीं।
-- दीपचंद सांखला
21 दिसम्बर, 2011

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