Monday, November 12, 2018

ऊंट उत्सव के बहाने बड़े आयोजनों की बात (10 जनवरी, 2012)

ऊंट उत्सव के बहाने कल पुलिस की बात की थी। अपनी बात कुछ लंबी हो रही थी। इसीलिए रविवार को हुए दो कार्यक्रमो--ऊंट उत्सव और कला, साहित्य एवं संस्कृति मेले पर बात आज कर लेते हैं! जैसा कि कल बताया था कि दोपहर बाद पुलिस की बजी लाठी के बाद ऊंट उत्सव के शेष कार्यक्रम में लगभग अराजक स्थिति बन गई थी। ऊंटनी का दूध दुहने की प्रतियोगिता में शुरू हुई अव्यवस्था उस दिन के कार्यक्रम समाप्त होने तक चलती रही। आश्चर्य की बात तो यह थी कि इस अव्यवस्था के बावजूद आयोजकों की सहजता कमाल की देखी गई। बल्कि कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कस्बों और मोहल्लों में बिना पुलिस जाब्ते के स्थानीय आयोजकों द्वारा आयोजित कार्यक्रम इनसे ज्यादा व्यवस्थित होते हैं। ऊंट उत्सव के सांस्कृतिक कार्यक्रम की शुरूआत में तो पर्यटन विभाग के उपनिदेशक स्वयं एक से अधिक बार यह कहते सुने गए कि ‘यदि आपने अव्यवस्था की तो मैं यह कार्यक्रम तुरन्त बन्द कर दूंगा।’ पाठक इस तरह के वाक्यों के मानी खुद निकाल सकते हैं। यही नहीं सांस्कृतिक कार्यक्रम का समय शाम छह से आठ बजे तक का था। जैसा कि कल बताया था कि अधिकांश स्थानीय दर्शक मंच के ठीक आगे बैठे और खड़े थे। जो बैठे थे वे इस ठंड में बिना किसी दरी के, वो भी दूब पर। यदि हिसाब मांगा जाए तो इस कार्यक्रम के पेटे कई लाख का भुगतान तो केवल टैण्ट हाउसों को किया गया होगा। बावजूद इसके टैण्ट की कुर्सियां 6.30 बजे से समेटनी और लोड बॉडी द्वारा भिजवानी शुरू कर दी गई। कार्यक्रम में जन-जुड़ाव की स्थिति तो यह थी कि पुलिस जाब्ते सहित कुल जमा 2000 की उपस्थिति भी नहीं थी इस कार्यक्रम में!
अब रविवार को ही कला, साहित्य एवं संस्कृति मेले के अन्तर्गत होने वाले अन्तिम कार्यक्रमों की भी बात कर लें। सुबह 11 बजे का समय तय था नरेन्द्रसिंह सभागार में होने वाली ‘बीकानेर संभाग की लुप्त हो रही लोककलाएं, महत्त्व, प्रासंगिकता और सुझाव’ विषय पर होने वाली गोष्ठी का। शुरू हुई 11.40 पर। मंच, श्रोता दीर्घा और आयोजकों को मिला कर कुल 50 लोग भी नहीं थे कार्यक्रम में, सूचना है कि इस आयोजन के अन्य कार्यक्रमों में लोगों की सहभागिता 150-200 से ज्यादा नहीं रही। यहां तक कि इसके उद्घाटन समारोह--जिसमें सर्वाधिक उपस्थिति मानी गई थी--की बात करें और स्कूली बच्चों को बाद दे दिया जाय तो 500 लोग भी नहीं थे उस आयोजन में। रविवार की गोष्ठी में नोहर के साहित्यकार भरत ओला ने इस मेले में श्रीगंगानगर और हनुमानगढ़ जिले की उपेक्षा की बात की, वह दो घंटे बाद हुए समापन समारोह में सिद्ध भी हो गई। बीकानेर जिले को मिले श्रेष्ठ प्रतिभागी की ट्रॉफी से मेजबान जिले को मुक्त रखा जाना चाहिए था। क्योंकि जब कोई आयोजन स्थानीय स्तर पर होता है तो मुख्यालय को कई विशेष सुविधाएं और अनुकूलताएं स्वतः ही हासिल हो जाती हैं। दूसरा यह कि संभाग मुख्यालय जिले को इतना बड़प्पन तो दिखाना ही चाहिए कि वो अपने को इस प्रतिस्पर्धा से मुक्त रखता। इससे ‘अंधा बांटे रेवड़ी’ न सही ‘आपराई हाथ आपरी ई आरती’ कहावत तो लागू हो ही सकती है।
-- दीपचंद सांखला
10 जनवरी, 2012

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