Wednesday, November 7, 2012

शहर में हाऊड़ो


लोक में एक काल्पनिक या कहें आभासी चरित्र था और है-हाऊड़ा। यद्यपि मीडिया 1975 में आयी फिल्मशोलेके बाद से ही इस हाऊड़ै की जगह गब्बरसिंह को स्थापित करने में लगा है। गब्बरसिंह भी वैसे सलीम-जावेद का घड़ा हुआ काल्पनिक चरित्र ही है। सन् 1975-76 की बात करें तो उस समय के एक मूर्त हाऊड़ै संजय गांधी का स्मरण हो आता है-जिनके विरासती हाऊड़ै आजकल भाजपा की गाड़ी पर सवार है।
दो-एक दिन से यह हाऊड़ा दिमाग पर इसलिए सवार है कि शहर के उस हिस्से की सड़कों की मरम्मत और साफ-सफाई एक अभियान की तरह की जा रही है जहां से राज्यपाल मारग्रेट अल्वा को गुजरना है। हालांकि इस तरह की रस्म अदायगी मुख्यमंत्री की हाल ही की यात्रा के दौरान भी हुई थी। राज्यपाल का बीकानेर प्रवास तीन दिन का है और इन तीन दिनों में वह शहर के कई हिस्सों में जाएंगी-और जहां-जहां से उन्हें गुजरना है उन सभी रास्तों काकल्याणहो गया है या हो रहा है। नफे में यह कि बीकानेर रेलवे स्टेशन के रास्ते भी उनकी रेलयात्रा के चलते कुछ सुधर गये। यह अन्वेषण का विषय हो सकता है कि अपनी राज्यपाल उड़नखटोलों से परहेज इसलिए करती हैं कि वह कम खर्चे का संदेश देना चाहती हैं या किसी ज्योतिषी ने उन्हें उड़नखटोलों का भय दिखा रखा है। सचमुच में सादगी के लिए ऐसा करती हैं तो उन्हें कभी राजस्थान रोडवेज की बसों से भी यात्रा करनी चाहिए ताकि जिन भी मार्गों से वह गुजरे वह मार्ग और रोडवेज के बस अड्डों के हालात कुछ ठीक हो सकें।
शहर में चर्चा इस तरह भी है कि यदि राज्यपाल प्रशासन को यह हिदायत दे देतीं कि शहर की जिन सड़कों से उन्हें गुजरना है इस यात्रा में उन्हीं सड़कों से दुबारा नहीं गुजरेंगी तो इस बहाने कम से कम दोगुनी सड़कें तो सुधर और साफ हो जाती! लगता है राज्यपाल की इस यात्रा से हमारे अखबारी बन्धु भी बड़ी उम्मीदें संजोए बैठे हैं। तभी अखबारों में उम्मीदों की फेहरिस्त जारी कर दी है। राज्यपाल जैसे पदों को आजादी बाद से ही सिर्फ और सिर्फ शोभाऊ बना दिया गया है। क्योंकि आजादी बाद के लम्बे शुरुआती दौर में अधिकांशतः केन्द्र और राज्यों में कांग्रेस की सरकार रही। इसलिए केन्द्र द्वारा नियुक्त यह राज्यपाल राज्य की सरकारों में कोई हस्तक्षेप करते नहीं देखे गये। पिछली सदी के आठवें दशक के बाद जबसे यह जुगलबंदी टूटी तब से ही राज्यपाल और राज्य की सरकारों में कुछ बेसुरापन देखा जाने लगा है। अन्यथा यह पद मात्र भोग के हो गये हैं। इसके प्रमाण के रूप में विभिन्न विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्तियों को देखा जा सकता है। कहने को इनकी नियुक्ति राज्यपाल करते हैं और सभी सरकारी विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति राज्यपाल ही होते हैं। लेकिन जिस तरह के अकादमिकों को कुलपति अब बनाया जाने लगा है उन पर अब राज्यपाल-मुख्यमंत्री की छाया तो दूर की बात है, ये कुलपति जिन इलाकों से आते हैं उनमें उन इलाकों के विधायक-सांसद तक झांकते नजर आने लगे हैं। यानी राज्यपाल जैसे इन पदों पर आने वालों का काम शासन सचिवालय से आयीं फाइलों पर केवल सहमति के हस्ताक्षर करने तक ही सीमित हो गया है। अगर अखबारी मित्रों का उद्देश्य इतना भर है कि राज्यपाल की इस यात्रा के बहाने शहर की उम्मीदों को ताजा भर कर लें तब तो ठीक अन्यथा आमजन को इससे अन्ना ब्रान्ड की जैसी निराशा ही हाथ लगेगी।
इन वीवीआईपीओं की ये यात्राएं सिर्फ प्रशासनिक अमले के लिए ही हाऊड़ा होती हैं-इनका आगमन और प्रस्थान आमजनता के लिए तमाशे से कम और ज्यादा सामन्तीकाल में था और आज है। आम जनता को परेशानी तभी होती है जब उन्हें सड़कों के किनारे हाथ हिलाने को जबरदस्ती खड़ा कर दिया जाता है। आपातकाल के अलावा ऐसा कम ही हुआ है।
इस तरह के हाऊड़ों का भय पिछले कुछ बरसों से प्रशासनिक अमले को ज्यादा सताने लगा है-या कहें 2008 में जब से तब की मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे ने यह तय किया कि 15 अगस्त का झण्डा वह बीकानेर में फहराएंगी। प्रशासनिक अमले की वैसी सक्रियता या तो तब देखी गई जब आपातकाल के दौरान संजय गांधी बीकानेर आये थे या 15 अगस्त 2008 को वसुन्धरा को जब बीकानेर आना था। दोनों ही अवसरों पर डेढ़े-दूने दामों में औने-पौने काम हुए थे। ऐसी हड़बड़ियों में काम ऐसे ही होते हैं।
अन्त में एक चुटकी....
राज्यपाल के आज शाम के कार्यक्रमों में किसी वैवाहिक आशीर्वाद समारोह में जाना भी है। अन्वेषण का एक विषय यह भी हो सकता है कि पहुंच वाले ये लोग अपने परिवार में वैवाहिक मुहूर्त किसी वीवीआईपी की यात्रा के दौरान का निकलवाते हैं या यह वीवीआईपी ही अपने यात्रा कार्यक्रम उस शादी के इर्द-गिर्द तय करवाते हैं जिनमें उन्हें शिरकत करनी होती है! सूबे के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी एक से अधिक बार ऐसा कर चुके हैं!
5 नवम्बर, 2012

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