लोक में एक कैबत है ‘बड़ों के घुसना सोरा (आसान) है पर निकलना बहुत दोरा (मुश्किल) है’ यह कैबत कल तब ध्यान आई जब खबर आई कि दारा एनकाउण्टर मामले के फरार पंचलखी आरोपी विजय ठेकेदार उर्फ बिज्जू उर्फ बिरजू बे-मौत मारा गया न केवल बे-मौत बल्कि मारकर उसके शव को सड़क किनारे डाल दिया गया। सरकार, पुलिस, सीबीआई और टीवी-अखबारों में दारा एनकाउन्टर को हाई प्रोफाइल मामला माना जा रहा है। आईजी, डीआईजी रेंक के अधिकारी लम्बे समय से अन्दर हैं, सूबे के मंत्री रहे एक बड़े नेता अन्दर की एक पारी भुगत आए हैं और दूसरी पारी के मुहाने खड़े हैं।
कहते हैं दारा शराब माफिया था और तब के केबिनेट मंत्री राजेन्द्र राठौड़ की नींद हराम किये हुए था। अचानक खबर आती है कि दारा पुलिस के एक एनकाउण्टर में मारा गया। यह एनकाउण्टर कांग्रेस राज में मुम्बई से शुरू हुवे। भाजपा के गुजरात सरकार में फले-फूले और बरास्ता अहमदाबाद-उदयपुर राजस्थान में भाजपा की सरकार के समय ही इस एनकाउण्टर तकनीक को जयपुर लाया और दारा पर अजमाया गया।
विनायक एक से अधिक बार इस अणसमझी गुत्थी का जिक्र कर चुका है कि अपराधी राजनेता होने लगे हैं या राजनेता अपराधी। यह गुत्थी अभी भी गुत्थी ही बनी हुई है। दारासिंह मरा तो कुछ दिनों बाद उसका प्रमुख विरोधी वीरेंद्र न्यांगली भी मारा गया और सुमेर फगेड़िया भी। कहा जाता है कि न्यांगली राजेन्द्र राठौड़ का खासम-खास था।
‘माया प्रेस’ इलाहाबाद का पत्र-पत्रिकाओं में बड़ा दबदबा था। राजनीति की पत्रिका ‘माया’ और अपराध कथाओं की पत्रिका ‘मनोहर कहानियां’ और सच्चे अपराध किस्सों के लिए पुस्तकाकार में ‘सत्यकथा’, तब यह तीनों पत्रिकाएं पाठकों में बड़ी लोकप्रिय थी। पिछली सदी के आठवें-नवें दशक में गाडे भर-कर आती थी और खरीददार ऐसे झपटते थे जैसे कई दिनों के भूखों को रोटी दिख गई हो। इन तीन पत्रिकाओं के चलते ‘माया प्रेस’ देश का बड़ा मीडिया हाउस माना जाता था। यह हाउस कुछ निजी कारणों और कुछ टीवी के आ जाने से उस स्थिति में नहीं रहा। तीनों पत्रिकाओं का अब नामोनिशान नहीं दिखाई देता है। अगर यह पत्रिकाएं होती तो दारा एनकाउण्टर की कथा पहले ‘सत्यकथा’ में जगह पाती और फिर जब राजनेता की एन्ट्री होती तो ‘माया’ में और फिर इस एनकाउण्टर की उपकथाएं ‘मनोहर कहानियों’ को भरा-पूरा करती। यह तो हो गई समधन्धी बात।
बात दारू के धन्धे की करें तो समझ लो, इसमें कितनों की बलि अब तक हो गई है। और कोई नहीं जानता कि कितनों की और होनी है। कैबत यह भी है कि ‘एक झूठ को छिपाने को हजार झूठ बोलने होते हैं।’ पर यह कैबत कभी नहीं सुनी कि एक हत्या (दारा) के आरोपों से बचने के लिए कितनी हत्याएं करवानी होती है। ऐसी कैबत चाहे नासुनी हो पर हत्या दर हत्याएं तो हो ही रही हैं।
बात जिस कैबत से शुरू हुई वहीं खत्म करते हैं। कहा जा रहा है यह विजय ही था जो दारा को पुलिस के हत्थे चढ़ाने धोखे से जयपुर लेकर गया और इसी को पता था कि यह उसने किनके कहने से किया। कैबते इस बहुगुणे रूप में चरितार्थ होगी, ऐसा अन्दाज शायद विजय को भी नहीं रहा होगा। विजय बड़ों में घुसा तो यह सोच कर होगा कि कहावत अनुसार दौरे ही सही निकल आएंगे। मर कर ही निकलेंगे ऐसा शायद नहीं सोचा होगा बिज्जू ने।
16 नवम्बर, 2012
2 comments:
very well said specially its still dilemma that politicians are culprit or culprits are politicians.......
आपके विषय से हटकर ....
माया प्रेस की पत्रिकाओं में मेरे कार्टून प्राय: प्रकाशित होते थे, अच्छा लगता था
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