Friday, November 9, 2012

न्याय की लेटलतीफी


विरप्पा मोईली संप्रग-दो में जब कानून मंत्री थे तो उन्होंने एक उम्मीद की किरण दिखाई कि सरकार सेवानिवृत्त जजों को संविदा और मुकदमों को निबटाने की शर्त पर रखेगी और हिन्दुस्तानी न्याय की इस लेटलतीफी पर लगाम कसेंगे। इस बयान के बाद ही यह महकमा उनसे ले लिया गया था। भारत की अदालतों में करोड़ों मुकदमें लम्बित हैं, इन लम्बित मुकदमों की संख्या प्रतिवर्ष बढ़ती भी जा रही है। सामान्य से मुकदमे को भी बीस-बीस साल लग जाते हैं फैसले तक पहुंचने में। इसका जिक्र यूं हो आया कि कल ही आंध्रप्रदेश हाईकोर्ट ने फैसला दिया है कि अजहरुद्दीन पर बीसीसीआई का खेलने पर लगाया प्रतिबन्ध अनुचित था। बारह साल बाद आए इस फैसले का लाभ अजहरुद्दीन को इतना ही मिल सकता है कि उन पर लगा दाग एक हद तक साफ होगा। पूरी तरह नहीं। पूरी तरह इसलिए नहीं कि हमारे यहां यह अजब मान्यता है कि कोई भी आरोप बेवजह नहीं लगाया जाता। अजहरुद्दीन के मामले में तो पता नहीं लेकिन स्थानीय स्तर पर कई मुकदमे ऐसे देखे सुने गये हैं जिनमें पूरी तरह निर्दोषों को भी लम्बे समय तक जेलों में इसलिए रखा जाता है कि उन पर लगे आरोपों के कारण वे न्यायिक प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। किसी भी निर्दोष के जेल में बिताए या आरोपों के साये में बिताए जीवन की भरपाई की जा सकती है क्या?
9 नवम्बर, 2012

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