Friday, November 2, 2012

ऐसे फैसले अनूठे नहीं अजब कहलाएंगे


आजकल के अखबारों को देखने-पढ़ने से ऐसा आभास होने लगा है कि हम ऐसे देश-प्रदेश में रह रहे हैं जहां कानून और व्यवस्था लगभग नदारद है यानी अराजकता है| इसके लिए अखबारों को दोष इसलिए नहीं दिया जा सकता चूंकि जो घटित हो रहा उसे ही वे प्रकाशित कर रहे होते हैं| कथा-कहानियां घड़ के तो छापते नहीं हैं| लूट-खसोट, चोरी-चकारी, बलात्कार-छेड़छाड़, दुर्घटना-धक्का-मुक्की, मारपीट-दादागिरी, घोटाले-रिश्वतखोरी, मिलावट, खोटे मापतौल, टैक्सचोरी-नकली माल आदि-आदि की खबरों से अखबार बदरंग हुए रहते हैं|
मिलावट से बात को उठाएं तो हाल ही में आए कोर्ट के एक फैसले का उल्लेख जरूरी लगता है| इसी तीस अक्टूबर को मिलावट के दो मामलों में भीलवाड़ा के अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट ने अपने फैसले में कानूनन सजाओं के अलावा भी यह आदेश दिया कि दोनों मिलावटखोरों को अपनी-अपनी दुकानों पर तय माप का ऐसे मजमून के साथ सूचनापट्ट एक साल तक लगाने होंगे जिनमें उन्हें दी गई सजा का उल्लेख हो| जानकारी के अनुसार कानून में इस तरह की दण्ड व्यवस्था का कोई प्रावधान नहीं है-यहां यह स्पष्ट कर दें कि सभी तरह के अपराधों में लिप्तों के प्रतिविनायककी तो कोई सहानुभूति है और ही कोई उदारता बरतने की तरफदारी| इसलिए यह जरूरी है कि कोई भी फैसला ऐसा हो जिससे अराजकता का कोई सन्देश ऐसे मुकामों से जाएं जो कानून और व्यवस्था कायम करने के लिए ही स्थापित हैं| उक्त फैसला गैर न्यायिक कोर्ट का है-लेकिन कई बार न्यायिक कोर्टों के भी ऐसे फैसले देखे गये हैं-जिनमें इस तरह की खीज और गुस्सा साफ जाहिर होता है|
एडीएम भीलवाड़ा का उक्त फैसला भी एक दण्डाधिकारी की खीज और गुस्से की ही अभिव्यक्ति है जो ऊपरी कोर्ट में अपील करने पर बेअसर हो जायेगी और दोनों व्यापारिक प्रतिष्ठानों को उक्त सूचनापट्ट हटाने की छूट मिल जायेगी| उन दोनों को सूचनापट्टों के इन अजब दण्डों से छुटकारा पाने के लिए ऊपरी कोर्ट में जाना होगा, कोर्ट फीस देनी होगी, वकील को मेहनताना देना होगा और, और भी कुछ देना पड़ सकता है, इस तरह के खर्चे से उन दण्डभोगियों को तय दण्ड से ज्यादा इसलिए भुगतना होगा कि एक दण्डाधिकारी ने खीज में ऐसा दण्ड दे दिया जो दण्ड विधान में नहीं है| तय विधान से ज्यादा सजा और ज्यादा दण्ड दोनों ही न्याय की श्रेणी में नहीं आते| लेकिन इस पूरे न्यायिक घटनाक्रम का एक सन्देश भी है कि इस तरह के अराजक माहौल में वह व्यक्ति ही यदि खीजने लगे जिस पर कानून और व्यवस्था बनाये रखने की जिम्मेदारी है तो यह केवल विचारणीय है बल्कि चिन्तनीय और चिन्ताजनक भी है|
अभी पिछले दिनों ही अन्ना के भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन के दौरान गांधीवादी कहे जाने वाले खुद अन्ना ने सार्वजनिक रूप से घोषणा कर दी थी कि भ्रष्टाचारियों को सरेआम फांसी दे दी जानी चाहिए| फिर उन्होंने अपनी बात को वापस ले लिया| अन्ना का कोई आन्दोलन इन दिनों नहीं चल रहा है-लेकिन अन्ना से उनकी पिछली दिल्ली यात्रा के दौरान किसी चैनल के साथ बातचीत में फांसी की बात को वापस लेने पर प्रश् किया गया तो उन्होंने बहुत ही मासूमियत से जवाब दिया कि मुझे बताया गया कि इस तरह की बातें नहीं करनी चाहिए| इसलिए फांसी की बात वापस ले ली| यह भी विचारणीय है कि अन्ना जैसे व्यक्तित्व जिनका अपना सार्वजनिक जीवन ही पचास साल से ऊपर का हो-वह खुद इस तरह के अराजक बयानों से ऊपर नहीं उठ पाये| उन्होंने अपना बयान यूं ही दे दिया और उसे वापस भी यूं ही ले लिया! मतलब सीधा-सा है कि उन जैसों का विवेक भी अभी तक इस तरह के निर्णय करने में सक्षम नहीं है तो सामान्य नागरिकों से उम्मीद क्या की जाय| अन्ना प्रकरण का उल्लेख इसलिए किया गया कि बेहद जिम्मेदार व्यक्तित्व भी बहुत सामान्य बातों पर अपनी लाइन तय नहीं कर पाते हैं तो स्थितियां बहुत अच्छी नहीं है| लेकिन उम्मीदें बनाये रखना भी जरूरी है और विवेक सम्मत सम्मतियों के लिए प्रयत्नशील रहना भी| जबकि एडीएम जैसों के सामने तो दंडसंहिता की लाइन है| कई बार इस लाइन से बाहर भी फैसले दिये जाते हैं-जो बाद के फैसलों के लिए नजीर बनते हैं| लेकिन इस तरह के फैसले कबीलाई मानसिकता से दिए नहीं होते हैं| उक्त तरह के फैसलों के चलते तो खांपों और जातीय पंचायतों के फैसलों को गलत ठहरा पाएंगे और ही अराजक समूहों-जिन्हें भीड़ भी कह सकते हैं, के ऐसे फरमानों और हरकतों को जिनमें किसी का मुंह काला किया जाता है और किसी स्त्री-पुरुष को नंगा कर घुमाया जाता है या किसी को अपेय या अखाद्य खाने को मजबूर किया जाता है|
2 नवम्बर, 2012

No comments: