Tuesday, October 9, 2012

संघों के बहाने नेतृत्व की बात


टैंट व्यवसायियों का दो दिवसीय प्रांतीय सम्मेलन कल समाप्त हो गया| विवाह या अन्य समारोहों को सज्जित और भव्य बनाने वाले इस व्यापार समूह का सम्मेलन भव्य होना ही था-लेकिन पारिवारिक, सामाजिक या राजनीतिक समारोहों में जिस तरह से और अधिकांशतः थोड़ी-बहुत बदमजगी होती ही है सो यह सम्मेलन भी अछूता नहीं रहा| बदमजगी थोड़ी ज्यादा ही हो गई सो स्थानीय आयोजकों को अच्छा लगा होगा आने वालों को| आने वाले यहां की मिठास के साथ कसैलापन भी लेकर गये हैं|
आजादी बाद से ही विभिन्न समूहों को नेतृत्व देने वालों की तासीर बदलती गई है-नेतृत्व देना कभी परार्थ माना जाता था अब लगभग स्वार्थ में तबदील हो गया है-यही कारण है कि सभी तरह के पद सत्तारूपों में परिवर्तित हो गये हैं-जबकि असल में होने ये सेवार्थ ही चाहिए थे-यद्यपि ऐसे सभी पद हासिल आज भी सेवा के नाम पर ही होते हैं, छोटे-से-छोटे संगठन के पदाधिकारी से लेकर राष्ट्रपति तक का पद| लेकिन प्रत्येक वह जिसे कोई कोई पद दे दिया जाता है या कोई खुद की तिकड़मों से हासिल कर लेता है तो वह अपने समकक्षों में ही अपने को विशिष्ट मानने लग जाता है-इस प्रवृत्ति को विडम्बना ही कहा जा सकता है|
यही कारण है कि अच्छे-भले इस व्यापारिक समूह के पदाधिकारियों के चुनावों को लेकर कुर्सियां तक चल गईं| कहने को कह सकते हैं कि संसद और विधानसभाओं में भी ऐसा कुछ ही होता है-तसल्ली इतनी ही है कि वहां बैठने की व्यवस्था ऐसी है कि उन बेंचों-टेबलों को उठा कर फेंका नहीं जा सकता| अतः अपने यह सांसद-विधायक केवल माइकों से या उनके स्टैंडों से ही काम चलाते हैं| स्थानीय आयोजनों में जिस तरह की उठाऊ कुर्सियों की व्यवस्था होती है वैसी ही कुर्सियों की व्यवस्था संसद और विधानसभाओं में हों तो-तौबा-तौबा!
8 अक्टूबर, 2012

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