वसुंधरा ही भाजपा है और भाजपा ही वसुंधरा है--राजेन्द्र राठौड़ का यह जुमला देवकांत बरुआ की खुशामदी काव्य पंक्ति ‘इन्दिरा इज इण्डिया-इण्डिया इज इन्दिरा’ की भद्दी पैरोडी है| बात आपातकाल की है तब बरुआ कांग्रेस के अध्यक्ष हुआ करते थे--सरकार की ओर से पसराए गये सन्नाटे में केवल इन्दिरा-संजय ही ध्वनित होते थे--उक्त पंक्ति ने तब के ध्वनित जुमलों में सर्वोच्च स्थान हासिल कर लिया था--कवि जो थे बरुआ! आपातकाल के बाद कांग्रेस के विपक्षियों ने जिस वाक्य का सबसे ज्यादा मजाक बनाया वह यही था| मजाक बनाने वाले नेताओं में जनसंघ मूल के नेता ही ज्यादा थे| चूंकि भाजपा अपने को कांग्रेस की फोटोकॉपी बनाने पर उतारू है तो राठौड़ के बयानों जैसे हश्र सामने आएंगे| राजेन्द्र राठौड़ की राजनीति कुल जमा वसुन्धरा के पासंग की है और ऊपर से दारिया एनकाउन्टर अलग से भय बनाए रखता है सो वसुन्धरा उनके लिए संजीवनी हैं|
देश की राजनीति जिस जमीन पर फसल काटती है उसके कुछ प्रकारों में जाति, सम्प्रदाय, धर्म, सामंती मानसिकता, धनबल, बाहुबल आदि-आदि प्रमुख हैं--और कभी-कभी इन सबसे ऊपर जो फैक्टर काम करता है वह पक्ष और विरोधी लहर का है--जो सन् 1977 की तरह देशव्यापी कम ही देखी गई है--राज्य स्तर पर या चुनाव क्षेत्रवार अकसर देखी जाती है|
इन सभी फैक्टरों को बीकानेर के सन्दर्भ में हम इस तरह भी समझ सकते हैं--हमारे इस इलाके के अब तक के चुनावों पर नजर डालें तो जिन फैक्टरों ने प्रभावी तरीके से काम किया, उनमें एक है सामन्ती और दूसरा है जातिय। डॉ. करणीसिंह को लोकसभा में पचीस साल तक भेजा जाता रहा--इसके पीछे मात्र एक फैक्टर ही काम कर रहा था--गुलाम मानसिकता का। आजादी के बाद जनता आज तक इस मानसिकता से निकली ही नहीं--इस मानसिकता पर जैसे ही जातिय मानसिकता हावी होने लगी--करणीसिंह लोकसभा से बाहर हो गये| शहरी क्षेत्र से अब भी सिद्धिकुमारी का विधायक बनना इस बात का प्रमाण है कि सामन्ती फैक्टर अब भी कायम है--इस फैक्टर का एक नया रूप गैर सामन्ती जातियों के उन लोगों के रूप में विकसित हुआ है जो लम्बे समय से किसी न किसी सत्तारूपों पर काबिज हैं। उनमें नेता, ब्यूरोक्रेट, बाहुबली और धनबली आदि शामिल हैं|
जातिय फैक्टर के सबसे पुराने प्रतीकों में मुरलीधर व्यास का उल्लेख किया जा सकता है| पुष्करणा बहुल शहर विधानसभा क्षेत्र के पहले चुनाव में कम जातिय आधार वाले मोतीचन्द खजांची केवल इसलिए जीत जाते हैं कि उनका चुनाव चिह्न तीर था, जो डॉ. करणीसिंह का चुनाव चिह्न भी था--मतदान एक साथ हुआ था--जनता भोलेपन में ‘राजाजी’ को दो-दो बोट डाल आईं--मोतीचन्द टप्पे में जीत गये| भारतीय मतदाता का यह भोलापन विभिन्न रूपों में अब भी कायम है| मुरलीधर व्यास चाहे जैसलमेर के थे पर उस जाति से थे जिसकी बहुलता क्षेत्र में थी--समाजवादी के रूप में दीक्षित थे तो जननेता की सजावट कर ली| एक समय ऐसा भी था जब उन्हें बीकानेर में चुनौतीविहीन माना जाने लगा| मुरलीधर की हैसियत का एक आधार जातिय न होता तो उन्हीं की जाति के ‘स्थानीय मूल’ के गोकुलप्रसाद पुरोहित उन्हें मैदान से बाहर नहीं कर पाते और वही गोकुलप्रसाद अगले ही चुनाव में जातिय फैक्टर में धनबल के जुड़ जाने पर खुद बाहर हो जाते हैं| जातीय आधार व व्यवस्थित चुनाव अभियान के बावजूद कल्ला यहां से दो बार हारे हैं तो इसका एकमात्र कारण केवल उनके खिलाफ उपजा रोष ही नहीं था--जिनसे वह हारे वे नेता उन्हीं की जाति समुदाय से होना भी एक कारण था|
आठवें दशक के शुरू में इलाके के जाति बहुल जाटों को राज की अहमियत समझ आ गई तो करणीसिंह भी हमेशा के लिए बाहर हो गये| जातिय राजनीति के चलते रघुवरदयाल गोइल जैसे स्वतंत्रता सेनानी जो प्रदेश के पहले मनोनीत मंत्रिमंडल में मंत्री रह चुके थे--पार्षद का चुनाव भी हार जाते हैं--परम्परागत कांग्रेसी रामरतन कोचर चुनावी राजनीति से बाहर हो जाते हैं और मानिकचन्द सुराणा जैसे समाजवादी और जनजुड़ाव रखने वाले नेता कभी भिन्न-भिन्न पार्टियों में तो कभी विभिन्न चुनाव क्षेत्रों में भटकने को मजबूर होते हैं!!
लहर में रामकृष्णदास गुप्ता और महबूबअली जैसे चुनाव जीत जाते हैं अन्यथा लगभग खरेपन के बावजूद उनका जीतना नामुमकिन साबित होता रहा है। यह अपवाद ही है कि लोकसभा के जाट बहुल रहे इस क्षेत्र से महेन्द्रसिंह भाटी चतुराई से चुनाव लड़कर जीत दर्ज करा लेते हैं--हालांकि इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि उस चुनाव में देवीसिंह भाटी ने अपने सम्बन्धों और हैसियत का सर्वाधिक दोहन किया था|
दलितों को बराबरी का हक देने वाली आरक्षण व्यवस्था को ये जातिबल, धनबल आदि किस तरह आईना दिखाते हैं उसे एक ही उदाहरण से समझ लें--सुरक्षित नोखा से एक से अधिक बार चुनाव जीतने वाले चुन्नीलाल इन्दलिया विधायक होने के बाद भी गांवों की अनौपचारिक यात्राओं में हमेशा जमीन पर बैठते थे, खाने के वास्ते थाली, कटोरी, लोटा तो साथ रखते ही थे--उनकी बार-बार जीत का एक कारण उनका इस तरह अपनी ‘औकात’ में रहना भी था।
यह सब कहने बताने का मकसद इतना भर है कि जनलोकपाल से और केजरीवाल की पार्टी से बहुत कुछ होना जाना नहीं है--जरूरत लम्बा अभियान चला कर देश के प्रत्येक नागरिक को लोकतान्त्रिक देश के नागरिक के रूप में शिक्षित करने की है ताकि उस नाते प्रत्येक अपने अधिकारों की ताकत को और कर्तव्यों की जिम्मेदारी को समझ सके|
--दीपचंद सांखला
--दीपचंद सांखला
20 अक्टूबर, 2012
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