Tuesday, October 9, 2012

कल्ला के बहाने रंगमंच की बात


डॉ. बी.डी. कल्ला कल निर्माणाधीन रंगमंच देखने पहुंचे तो कइयों को आश्चर्यमिश्रित खुशी हुई| खुशी इसलिए कि इसके शिलान्यास के 18 वर्ष, 9 माह और 27 दिन बाद ही सही-चलो आखिरकार कल्ला ने इसेऑनतो किया| अन्यथा 13 दिसम्बर 1993 को देवीसिंह भाटी ने जब शिलान्यास किया तब से लेकर आज तक इस रंगमंच से डॉ. कल्ला का कभी कोई लेना-देना नहीं रहा-शायद वे मानते हों कि इसकी क्रेडिट के हकदार केवल देवीसिंह ही हैं-जबकि देवीसिंह इस प्रोजेक्ट को लेकर खुद उस अभागन की भूमिका में चुके हैं जिसे अपने नवजात को किसी अकूरड़ी या रोही या अन्य किसी सूनी जगह पर छोड़ने को मजबूर होना पड़ता है| पाठकों को यह स्मरण कराना भी जरूरी है कि लगभग इन 19 वर्षों में कल्ला और भाटी दोनों राज में ऐसे पदों पर रहे कि रंगमंच का काम पूरा करवाना उनकी जद में था|
बीकानेर वाले अपने को सुसंस्कृत, कलाप्रेमी, साहित्यप्रेमी, रंगप्रेमी, रसिक आदि-आदि मानते रहे हैं| और आजादी के पहले भी यहां लोक, पारसी और बाद में शास्त्रीय नाटक होते रहे हैं| पहले श्रीगंगाथिएटर और बाद में टाउन हॉल इसके लिए मंच उपलब्ध करवाता रहा है, अन्य शहरों में रंगमंच बनने लगे तो बीकानेर से भी इसकी मांग उठने लगी| कभी फोर्ट स्कूल के मैदान में इसके बनने की योजना बनी तो कभी रतनबिहारी पार्क में शिलान्यास हुआ| अन्ततः टाउन हॉल के पास गांधी उद्यान परिसर में शिलान्यास हो भी गया तो इसका निर्माण लगातार अलग-अलग कारणों से बाधित ही रहा| 1996 में जब इसका निर्माण पुरजोर तरीके से होना चाहिए था तब यह प्रोजेक्ट तत्कालीन जिला कलक्टर सुबोध अग्रवाल की सनक का शिकार हो गया-और वह जाते-जाते इसके निर्माण की फाइलों पर ऐसी गोटी बिठा गये कि आज पंद्रह साल बाद तक इसका निर्माण अधरझूल में है|
बीकानेर के वॉलीबाल प्रेमी आज भी दबे मुंह यह कहने से गुरेज नहीं करते हैं कि इस रंगमंच को हमारी हाय लगी है| क्योंकि रतनबिहारी पार्क के जिस स्थान पर इसे प्रस्तावित कर शिलान्यास किया गया था तब वहां एक व्यवस्थित वॉलीबॉल का कोर्ट था-और वहां नियमित अभ्यास और टूर्नामेंट होते थे-वे वहां से बेदखल होकर टाउन हॉल के पास उसी जगह कोर्ट बना कर खेलने लगे तभीरंगमंचवहां भी गया-वहां से बेदखल हुआ वॉलीबॉल का खेल आज तलक कहीं भी अपना कोर्ट जमा नहीं पाया है| वॉलीबॉल प्रेमियों की बात के दम को तो समझा ही जाना चाहिए|
सुबोध अग्रवाल के समय इस रंगमंच के समर्थन में शहर में अभूतपूर्व जागरूकता देखी गई| शहर के वे नागरिक समूह जो रोटी-कपड़ा-मकान की जद्दो-जेहद से ऊपर उठ चुके थे-उनमें से अधिकांश और लगभग सभी संघों, मंडलों, यूनियनों-एसोसिएशनों के प्रतिनिधि साहित्य-कला प्रेमियों के साथ खड़े हुए थे और गुण प्रकाशक सज्जनालय से अनुशासित और लम्बा मौन जुलूस जो कलक्टरी होते हुए सम्भागीय आयुक्त कार्यालय तक पहुंचा था-आज भी स्मरणीय है| लेकिन तब एक अनुभव यह और हुआ कि कोई ब्यूरोक्रेट यदि कुछ धार लेता है तो उसे विचलित करना नामुमकिन होता है| इस जुलूस ने शहर पर भले ही छाप छोड़ी हो-लेकिन अफसराई टस से मस नहीं हुई|
2010 के अन्त में जिला कलक्टर के रूप में डॉ. पृथ्वी आए-कहा जाता है कि उन्होंने व्यक्तिगत रुचि लेकर रंगमंच के निर्माणकार्य को आगे बढ़ाया-अभी जाते-जाते कई स्वागत, अभिनन्दन भी इसलिए ही करवा रहे हैं कि उन्होंने शहर में विकास की नदियां बहा दीं, कार्यकाल के अधिकांश समय वह न्यास अध्यक्ष भी रहे| काम का मानस कई वजहों से होता है-इनका भी था, वजह पता नहीं चली है-लेकिन डॉ. पृथ्वीराज का उल्लेखनीय काम जैन स्कूल के पास वाली लिंक रोड का निर्माण ही कहलाएगा| रही बात रंगमंच की तो लगता है इसमें पृथ्वी की रुचि बाहर के कामों में ज्यादा रही| अधिकांश बजट खर्च करके चेहरा लगभग सजा दिया, (इसके बावजूद कल्ला इसे किस तरह का हैरिटेज लुक देने की बात कल कह गये हैं|) और एक भ्रमण पथ भी बन रहा है, जिसकी कोई खास जरूरत फिलहाल नहीं है-काश! इस बजट का उपयोग पहले अन्दर के कामों को पूरा करवाने में किया जाता तो सम्भवतः यह रंगमंच नाट्य प्रदर्शन की स्थिति में जाता-बाहर का काम तो फिर भी होता रहता|
वैसे डॉ. पृथ्वी की रुचि पत्थरों से सजावट में ज्यादा रही है, कारण तो वे खुद या उनके खास सहयोगी ही बता सकते हैं| हां, पर इसकी चर्चा तो शहर में रही ही है|
9 अक्टूबर, 2012

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