1999 में एक फिल्म आयी थी ‘शूल’| उसका एक गाना तब बड़ा हिट हुआ, जिसकी एक पंक्ति थी ‘मैं आई हूं यूपी बिहार लूटने’ शिल्पा शेट्टी पर्दे पर इसे बहुत ही आत्मविश्वास के साथ एक्ट करती हैं|
2003 के विधानसभा चुनावों से कुछ पहले आत्मविश्वास से लबरेज वसुन्धरा राजे राजस्थान आईं और कांग्रेस की 56 के मुकाबले भाजपा को 120 सीट जितवा मुख्यमंत्री बन गई| चुनाव पहले की परिवर्तन यात्रा में वसुन्धरा के साथ ब्यूटिशियन,
ड्रेस डिजाइनर और इवेन्ट मैनेजरों की पूरी टीम चलती थी पूरी यात्रा को प्लान और डिजाइन किया गया था| वसुन्धरा इससे पहले केन्द्र में अपनी विरासती राजनीति में ‘कूल’ तरीके से मशगूल थी| तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सुराज के मामले में तब मीडिया की शीर्ष सूची में थे| शासन और प्रशासन में कुछ नवाचार भी किये इसी बूते गहलोत भी कम आत्मविश्वास में नहीं थे लेकिन सामन्ती ठाठ के साथ लगभग हमलावर रूप में आई वसुन्धरा ने बहुत थोड़े समय में राजनीतिक बिसात और चुनावी रंगत, दोनों बदल दी| अपनी जनता भी आजादी के पैंसठ साल बाद आज भी सामन्ती मानसिकता से कहां निकली है?
वसुन्धरा का पिछले पांच वर्षों में अधिकांशतः विदेश या राज्य से बाहर रहना और राज्य की राजनीति में लगातार हाथ-पैर न मारते रहना उनके इस आत्मविश्वास को दर्शाता है कि जब भी आयेंगी राजस्थान लूटने के अन्दाज से ही आयेंगी-भाजपा में शीर्ष नेतृत्व या कहें आला कमान लगभग नहीं हैं-जितना कुछ बिखरा बचा है, उस बिखरे बचे को लगता है कि इस देशव्यापी कांग्रेस विरोधी माहौल को भुनाने की क्षमता राजस्थान में केवल वसुन्धरा के पास है| और यह आकलन लगभग सही भी है-तभी वसुन्धरा राजनाथसिंह से लेकर नितिन गडकरी तक किसी को भाव नहीं देती, अरुण चतुर्वेदी जैसे तो उनकी गिनती में आते ही नहीं हैं| अशोक गहलोत अपनी इस दूसरी पारी की शुरुआत से ही सिर्फ रक्षात्मक मुद्रा में ही देखे गये हैं-या कहें छाछ को भी फूंक-फूंक कर पी रहे हैं| यद्यपि गहलोत का राज ज्यादा मानवीय, लोकतान्त्रिक है और यह भी कि लोककल्याणकारी योजनाएं लाने वाले राज्यों में राजस्थान हाल-फिलहाल अग्रणी है|
पर इस सबके बावजूद माहौल यह नहीं कह रहा है कि राजस्थान की जनता अगले चुनावों में गहलोत को फिर मौका देगी-जबकि प्रमुख विरोधी दल भाजपा में आज भी यह शत-प्रतिशत निश्चिंतता नहीं है कि कमान वसुन्धरा ही सम्भालेंगी| वसुन्धरा राजनीति को जहां केवल हेकड़ी से साधती हैं वहीं गहलोत इस मामले में राजस्थान के अब तक के सबसे शातिर राजनीतिज्ञ के रूप में स्थापित हो चुके हैं| वे राजनीति को चतुराई से साध तो लेते हैं-लेकिन उनके पास जनता को लुभाने के वसुन्धरा के जैसे न लटके-झटके हैं और न इस नौकरशाही से काम लेने की साम-दाम-दण्ड-भेद की कुव्वत-वसुन्धरा राज में खर्च किया एक-एक रुपया भी वसुन्धरा के गुणगान के साथ खनका है-गहलोत के उससे कई गुना खर्च की खनक खोटे सिक्के की सी आवाज भी पैदा नहीं कर पा रही है| इसके लिए जिम्मेदार कांग्रेसी हैं-जो सभी धाए-धापे से रहते हैं-इनके ठीक विपरीत भाजपाई कार्यकर्ता चुनाव आते और चामत्कारिक नेतृत्व मिलते ही पूरे जोश-खरोश के साथ छींके तक पहुंचने की जुगत में लग जाते हैं|
गहलोत का मीडिया मैनेजमेंट भी बेहद कमजोर रहा है-वे अपने ‘भोंपू अखबारों’ को पोखते हैं और उनमें छपे गुणगानों से संतुष्ट हो लेते हैं, लेकिन वह यह भूल जाते हैं कि जो अखबार या टीवी घोषित ‘गहलोती भोंपू’ हो चुके हैं उनका असर कितना होगा? मिशन से शत-प्रतिशत व्यापार बन चुके इस मीडिया को साधना अब नामुमकिन तो क्या मुश्किल भी नहीं है| आजकल का अधिकांश मीडिया अपनी हेकड़ी चलनी में लिए घूमता है और इस चलनी के नीचे हथेली राज की है!
दूसरी बात यह भी देखी गई है कि गहलोत अपने प्रशासनिक अमले पर कुछ ज्यादा ही भरोसा कर रहे हैं| प्रबन्धकीय आयाम से तो यह अच्छी बात होती है लेकिन राज चलाना है तो देखना यह भी होता है कि इस तरह का भरोसा करने जैसा यह प्रशासनिक अमला है क्या-क्योंकि शासन आपको इन्हीं के माध्यम चलाना है| कुछेक भरोसे के अधिकारियों को छोड़ दें तो-सभी अपने-अपने तरीके और बल पड़ते जाली-झरोखे से प्रशासन चला रहे हैं-उनमें से अधिकांश में इस बात की चेष्टा कहीं नहीं दीख रही कि राज की साख भी बने| वसुन्धरा के समय ऐसा नहीं था-वह जब चाहे तब लगाम खींच कर इन अफसरों को जांचती और चौकस रखती थीं|
प्रशासनिक अमले पर गहलोत के इसी अति भरोसे के चलते उनकी सभी फ्लैगशिप योजनाएं बेरंगत हैं| और रंगत नहीं आयेगी तो अगले चुनावों के बाद राज भी नहीं रहेगा-जमाना दिखावे का है, केवल अच्छी मंशा से काम करना ही पर्याप्त नहीं है-उसका क्रियान्वयन होते दीखना भी जरूरी है|
4 अक्टूबर 2012
4 अक्टूबर 2012
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