कल देर शाम एक नामपट्ट और लग गया है| अग्रसेन सर्किल पर नगर विकास न्यास ने वहां से रात्रि में गुजरने वालों की सुविधा के लिए हाईमास्ट लगाई है-देखा जाय तो इस तरह के काम न्यास और निगम के सामान्य कामों या कहें न्यूनतम जिम्मेदारियों में आते हैं| तब उनका इस तरह नामपट्ट लगाकर महिमामण्डित होना कहां तक उचित है! इन नामपट्टों का क्या हश्र होता है-विनायक ने इसी 11 अक्टूबर के अंक में ही ऐसे चार नामपट्टों के फोटो छाप कर बताया कि उन चारों नामपट्टों पर परचे-पोस्टर इस तरह से चिपके हुए हैं कि वे आए-गये को शहर की भद्द ही दिखाते हैं|
बात समझ से परे यह भी है कि इस अग्रसेन सर्किल को विकसित करने की इजाजत देने से पहले न्यास योजनाकारों ने इसे पुनर्व्यवस्थित करने की जरूरत क्यों नहीं समझी-यहां जो पुराना घूमचक्कर था वह तब का था जब डीआरएम ऑफिस की चार दीवारी दोनों तरफ पीछे थी-चालीसे’क साल पहले रेलवे के योजनाकार तब तुरन्त सचेत हुए जब उनके कोने पर न्यास ने तीन व्यावसायिक भूखण्ड निजी क्षेत्र को बेच दिये| रेलवे के योजनाकारों को सही ही लगा होगा कि उनके इस मण्डल स्तरीय कार्यालय के दोनों ओर यदि सभी भूखण्ड इस तरह बिक गये तो उनके कार्यालय का मुखड़ा दीखने जैसा ही नहीं रहेगा-और रेलवे ने दोनों तरफ की शेष जमीनें अपने लिए आवंटित करवाकर चारदीवारी बनवा ली|
इस चारदीवारी के बाद तब ही इस घूमचक्कर को खिसकाया जाना चाहिए था लेकिन वह जस का तस रहा| इस घूमचक्कर पर पहले तो पिछली सदी के आठवें दशक में न्यास ने साहित्यकार शंभूदयाल सक्सेना की मूर्ति लगाने की घोषणा की थी जो अज्ञात कारणों से सिरे नहीं चढ़ी| वर्षों बाद इस घूमचक्कर पर अग्रवाल समाज की नजर पड़ी और उन्होंने लाखों रुपये खर्च कर इसको विकसित किया और अपने प्रेरणापुरुष अग्रसेन की मूर्ति स्थापित कर दी| तब न न्यास योजनाकारों को यह सूझी और न ही अग्रवाल समाज के अगुवाई करने वालों को कि इस घूमचक्कर को राजीव चौक की ओर खिसकाया जाना जरूरी है| यह घूमचक्कर इस तरह बना है कि इसके चारों ओर से गुजरने वाले गलत दिशा से निकलने को प्रेरित होते हैं| जैसे-जैसे यातायात का दबाव बढ़ेगा तो देर सबेर इसे खिसकाना तो पड़ेगा ही| योजनाकार यह भी भूल रहे हैं कि बीच चौराहों-तिराहों पर मूर्तियां लगाने के खिलाफ कोर्ट का फैसला आया हुआ है|
ठीक इसी तरह सोहन कोठी के आगे के तिराहे पर डिवाइडर बना कर उसे भी विकसित करने की जरूरत है, यहां का यातायात भी तीनों तरफ गलत दिशाओं से गुजरता है और दिन भर आने-जाने वालों के बीच बदमजगी होती रहती है| यही स्थिति रानी बाजार पुलिया के दोनों तरफ के तिराहे चौराहे की है-न्यास के योजनाकारों की क्या यह जिम्मेदारी नहीं है कि इस तरह के सभी तिराहों-चौराहों पर पूरे दिन होने वाली बदमजगी को रोकने का उपाय करें|
अभी दसेक वर्षों से भाजपा और कांग्रेस दोनों के राज में हर उस काम पर यह ‘नामभाटे’ लगाने का प्रचलन हो गया है जिन्हें करना न्यास और निगम की सामान्य जिम्मेदारियों में आता है-अब सड़क पर कारपेटिंग की है तो ‘नामभाटा’, सीसी ब्लॉक की सड़क बनाई है तो ‘नामभाटा’, सीसी सड़क बनाई है तो ‘नामभाटा’-कोई हाईमास्ट लगा दी तो नामभाटा| न्यास के योजनाकार उन मानकों का अध्ययन करे जिनमें बताया गया है कि इन्हें किन तरह के स्थानों पर और किस तरह की सावधानियों से लगाया जा सकता है| हम पाएंगे कि शहर में लगाई गई एक भी हाईमास्ट सही नहीं ठहराई जाएगी| आसपास के जिन घरों के भीतर इनकी रोशनी पड़ती है यदि वे सचेत होकर कोर्ट जाएं तो शहर की सभी हाईमास्टें न्यास को हटानी पड़ सकती हैं-यह उन बड़े चौराहों और चौकों पर ही लग सकती है जहां से तय दूरी तक कोई रिहाइश न हो| खैर, ज्यादा तो वह बाशिंदे जाने जो रोज रात इनको भुगतते हैं|
इन ‘नामभाटे’ लगाने वालों से कोई पूछे कि कोटगेट से लेकर महात्मागांधी रोड और जूनागढ़ होते हुए लालगढ़ तक जाने वाली सड़क पर क्या कोई नामभाटा है? कि कोटगेट से लेकर रानीबाजार तक जाने वाली सड़क पर कोई ‘नामभाटा’ है? यह सड़कें तो बाकायदा योजना बना कर नये सिरे से बनी थी और इन्हें बने सौ-डेढ़ सौ बरस भी नहीं हुए हैं!
अंत में एक चुटकी
हां, हो यह भी सकता है कि शहर की हर रोडलाइट पर ही एक नामपट्टिका लटकाई जा सकती है| तब तो पार्टी के हर कार्यकर्ता के नाम का नम्बर आ जायेगा और सभी खुश भी हो जायेंगे| इन राजनीतिक पार्टियों को ऐसा क्यों नहीं सूझ रहा है अभी तक?
15 अक्टूबर, 2012
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