Wednesday, October 24, 2012

राक्षसी प्रवृत्तियां आज भी हैं पर राक्षसी धर्म नहीं रहा!


चालीसे साल पहले की बात है, एक ब्राह्मण पुजारी कुछ स्थानीय दुकानों में सजे-पूजा स्थलों पर प्रतिदिन आकर पूजा करते थे| पूजा के बाद सड़क पर आकर सूरज की ओर मुंह कर सूरज, इन्द्र, रामचन्द्र का जयकारा भगवान के विशेषण से और दुकान मालिक के मुख्य परिजनों का जयकारा सेठ के विशेषण से पुरजोर लगाते थे| उनकी आजीविका के एक हिस्से की पूर्ति इस तरह भी होती थी शायद|
छोटी कद-काठी के ये पुजारी तब लगभग सत्तर के रहे होंगे! आज उनका स्मरण इसलिए हो आया कि वह प्रतिवर्ष दशहरे के दिन शाम को रावण दहन के समय स्थानीय स्टेडियम पहुंचते और दहन से पहले रावण के पुतले की विधि-विधान से पूजा करते थे-ऐसा उनसे पहले भी होता रहा होगा-इसका तो पता नहीं-लेकिन उनके बाद कभी देखा-सुना नहीं गया| उनकी इस क्रिया से अचम्भित हो कोई उनसे पूछता कि रावण पूजनीय कैसे हैं तो वह बताते-रावण इसलिए पूजनीय है कि वह ब्राह्मण था, प्रकांड पंडित था और शास्त्रों का ज्ञाता था और उससे बड़ा शिव भक्त आज तक नहीं हुआ| राक्षस इसलिए कहलाया कि उसे अपने ज्ञान का, धन का और राज का गुमान हो आया था और इस गुमान से बुद्धि ऐसी फिरी कि सीता को उठा लाया| इस कथा से एक बात तो यह समझ में आयी कि राक्षस कोई नस्ल या कुल नहीं है-केवल प्रवृत्ति है जो किसी में भी सकती है|
उक्त बात से सहमतियां और असहमतियां हो सकती हैं| वर्तमान सन्दर्भ में बात करें तो प्रतिवर्ष रावण के पुतले का कद बढ़ने का एक तर्क यह भी हो सकता है कि यह राक्षसी प्रवृत्ति दिनोदिन समाज में बढ़ रही है इसलिए रावण के पुतले का कद भी प्रतिवर्ष बढ़ाया जाता है|
इन पुतलों का कद बढ़ाने के पीछे दशहरा कमेटियों का सोच भिन्न होता है-जिसमें पहला कारण वह प्रतिस्पर्धा है जिसमें विभिन्न जगहों पर जलाए जाने वाले पुतलों में उनकी कमेटी का पुतला सबसे लम्बा होना चाहिए| यह प्रतिस्पर्धा भी हो तो दूसरी समस्या उनकी इन दिनों यह हो सकती है कि टीवी अखबार वाले आकर पूछेंगे कि इस बार आयोजन में विशेष क्या है-तो एक तो यही बताया जा सकता है कि इस बार रावण के पुतले का कद पिछले वर्ष की तुलना में इतने फुट ज्यादा है|
इस दूसरे तर्क से अपराधबोध यह जागा कि हम पत्रकार भी पटाखों से होने वाले प्रदूषण को बढ़ाने के दोषी हैं-पुतले बड़े होंगे तो पटाखे भी ज्यादा लगेंगे-अलावा इसके कुछ नये प्रकार के तीर-कुछ नई प्रकार की चकरियां आदि-आदि प्रतिवर्ष बढ़ाई जाएंगी| इन पटाखों का प्रदूषण तो दशहरा-दिवाली के अलावा भी आजकल बारह महीनों होने लगा है| विवाह-शादियों में दिखावे की हद तक इनका प्रयोग बेशुमार होने लगा है-क्रिकेट का मैच जीतने पर भी आतिशबाजी जम कर होने लगी है अरे भाई! खुशी आप इस तरह क्यों नहीं जाहिर करते हो कि अपने मुहल्ले या गांव के या शहर के अच्छे खिलाड़ी होने के उन आकांक्षी होनहारों को खेलने की सुविधाएं और अनुकूलता उपलब्ध करवा दी जाए! अगर ऐसा होता है तो कॉमनवेल्थ, एशियाड और ऑलिम्पिक पदक तालिका में कुछ इस देश की कुछ प्रदेश की तो कुछ शहर गांव-मुहल्ले की भी वल्ले-वल्ले हो जाएगी| रही सही कसर शहर के स्थापना दिवस आखाबीज और आखातीज पर भी अब आतिशबाजी होने लग गई है| दिखावे के इन आयोजनों को बढ़ाने की बजाय कम करने की जरूरत है|
बात रावण की कर रहे थे-शास्त्रों में रावण को राजा बतलाया गया है-ऐसा राजा जिसके राज में प्रजा को सभी-सुख सुविधाएं हासिल थीं-आज की तरह कोई भी खुले में आसमान के नीचे नहीं सोता था-नंगे बदन नहीं रहता था और भूखा नहीं सोता था| लेकिन प्रजा में कोई भी अपने मन की नहीं कर सकता था-चलती रावण की ही थी-कानून भी वही तय करता था और न्याय भी| लेकिन आज के हमारे अधिकांश राजाओं (नेताओं और नियन्ताओं) की प्रवृत्तियां राक्षसी होती जा रही हैं-पर राक्षसी धर्म को ये भूल गये हैं! रावण के राज की तरह कम से कम गरीबी तो रहने देते| कुछ घोटालों में मशगूल हैं तो कुछ एयाशियों में तो कुछ अपने और अपनों का घर भरने में लगे हैं-‘समरथ को नहीं दोष गुसाईं’-गोस्वामी तुलसीदास यह पंक्ति इन नये प्रकार के राजाओं के लिए भी लिख कर गये हैं शायद!!
24 अक्टूबर, 2012

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