Thursday, October 25, 2012

एक पड़ताल भाजपा की


देश की दो प्रमुख पार्टियां कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (जनसंघ सहित) के इतिहास पर नजर डालें तो भाजपा की उम्र कांग्रेस की उम्र से आधी से भी कम है| कांग्रेस की स्थापना सन् 1885 में हुई-कई बार की टूट-भांग के बाद आज भी वह अपने अमीबाई रूप में कायम है| जनसंघ की स्थापना सन् 1951 में हुई| सन् 1977 में जनता पार्टी का घटक दल बनी और 1980 में कुछ उदारताओं के साथ इसे भारतीय जनता पार्टी के रूप में स्थापित किया गया| इन उदारताओं के चलते ही भाजपा ने अपने स्वरूप में जनसंघ के बनिस्पत व्यापक विस्तार पाया है| लेकिन तभी से भाजपा पूरे तौर तो अपनी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडे पर चल पाई है और ही वह खुद कोई अपना विचार या कार्यप्रणाली बना पाई है| देखा जाय तो विचार और कार्यप्रणाली दोनों ही तय नहीं है| कोई मुद्दा ले लो-विदेश नीति का, आर्थिक नीति का, सामाजिक नीति और राजनीतिक सभी पर कोई निश्चित या कहें एक नीति वे नहीं बना पाये हैं| संघ की नीतियों से इधर-उधर होती है तो लगाम से दो-चार होना पड़ता है| संघ अपने को बदलना नहीं चाहता-बदले तो अस्तित्व नहीं रहेगा शायद|
भाजपा संघ के कहे-कहे करे तो वह व्यावहारिक राजनीति नहीं कर सकती| अटल बिहारी वाजपेयी जब तक पूर्ण सक्रिय थे-तब तक पार्टी उनके व्यक्तित्व से बंधी थी| उनका व्यक्तित्व इतना बड़ा है कि उन्हें निर्देशित करने की स्थिति में संघ भी अपने को नहीं पाता था-वाजपेयी भी संघीय संकीर्णताओं की परवाह कम ही करते थे| संघ भाजपा पर कोई अध्यक्ष थोपता भी था तो पार्टी में उसकी कोई खास हैसियत नहीं होती थी| जब से वाजपेयी अस्वस्थ हुए हैं, तब से पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व की स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती| लालकृष्ण आडवाणी का व्यक्तित्व ठीक-ठाक है| जितना है उससे ज्यादा इसलिए नहीं हो सकता कि संघ की जो वर्णीय मानसिकता है उसमें वह फिट नहीं बैठते हैं| आडवाणी के अपनी किशोरावस्था से निष्ठावान स्वयंसेवक होने के बावजूद भी| दूसरा, यह कि वैचारिक तौर पर खुद आडवाणी आज तक यह तय नहीं कर पाये हैं कि उन्हें संघ की हार्डलाइन पर चलना है कि वाजपेयी की उदार लाइन पर जब-जब भी वह अपनी उदार छवि की ओर अग्रसर होते हैं तभी केवल संघ बल्कि पार्टी में भी जो उनसे विरोध रखते हैं-मुखर हो जाते हैं| शायद इसलिए कि आडवाणी वाजपेयी के जैसे कुल के नहीं हैं| फिर भी संघ के बिठाये नितिन गडकरी जैसे माधो से या पार्टी के किसी अन्य नेता से आज भी आडवाणी 85 की इस वय में  सबसे बेहतर साबित हो सकते हैं| कोई आर्थिक अनियमितता भी उन पर चस्पा नहीं है और ही कोई सक्रियता में कमी है| केवल संघ को बल्कि पार्टी को भी यह समझने की जरूरत है| सन् 1977 के बाद कांग्रेस विरोध का ऐसा माहौल भाजपा को फिर कब मिलेगा, नहीं कह सकते|
25 अक्टूबर, 2012

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