Thursday, May 8, 2014

वोटरों को बेवकूफ ही समझते हैं नेता

किसी को भोला समझने या बेवकूफ समझने में यूं तो अन्तर भारी है पर भारतीय राजनेताओं ने इस अन्तर को लगभग पाट दिया है। भारतीय जनता की जब बात करते हैं तो आबादी के वे बारह-पन्द्रह प्रतिशत लोग फट से मुंह आगे कर देते हैं जो किसी किसी तरह के जातीय आधार या प्राप्त पद के आधार पर, सम्पत्ति या बाहुबल के आधार से अथवा समर्थ या सबल होकर आम-आवाम की नुमाइंदगी और उन्हें हांकने का हक हासिल कर चुके हैं। लगभग इसी बिना पर ये नेतानुमा लोग शेष असल भारतीय आम-आवाम को पूरी तरह बेवकूफ समझ बैठे हैं।
आजादी बाद पं. जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री बने, देश को प्रगति की राह पर ले जाने का उनका अपना सपना था। यह सपना चाहे गांधी सोच से उलट रहा हो, पर नीयत में उनके कोई गड़बड़ थी, यह मानना उचित नहीं होगा। जनता ने नेहरू को अच्छा खासा समय भी दिया और उन्होंने अपने सपने को आधारभूत अमली-जामा पहनाने की कोई कसर नहीं छोड़ी। कहते हैं नेहरू को अपने अन्तिम समय में यह एहसास हो गया था कि देश के विकास का गांधी मॉडल ही ज्यादा व्यावहारिक है। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर इसे अपनी भूल भी माना। जैसा कि ऊपर कहा गया उनकी नीयत पर शक नहीं किया जा सकता, सो भूल क्षम्य है। हालांकि, देश को जिस पटरी पर तब उतार दिया गया उसका हश्र घोर आर्थिक-सामाजिक विषमता के रूप में ही होना था, जिसे हम भुगत ही रहे हैं।
नेहरू के बाद लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने, तब देश गहरे अन्न संकट की दहलीज पर खड़ा था, ऊपर से पाकिस्तान ने युद्ध छेड़ दिया। युद्ध विजय के बाद शास्त्री अपनी कोई कार्ययोजना दे पाते इससे पहले ही उनका निधन हो गया। कह सकते हैं कि समय ने शास्त्री को समय ही नहीं दिया।
इसी दौरान देश की सर्वाधिक शक्तिशाली या कहें एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस में नेहरू के बाद एक अलग सत्ताकेन्द्र विकसित हो गया। नेहरू की नीतियों से विलग जिनका झुकाव पूंजीपतियों की तरफ था। लेकिन उनमें मोरारजी देसाई, निजलिंगप्पा आदि सभी में से एक भी ऐसा नहीं था कि जिनमें यह आत्मविश्वास हो कि पार्टी और देश में उसकी सर्वस्वीकार्यता होगी। इन्दिरा गांधी 'प्रियदर्शिनी' युवा थीं और नेहरू की बेटी भी। उक्त सत्ताकेन्द्र को लगा कि इस गूंगी गुडिय़ा को प्रधानमंत्री का पद देकर राज की कमान हम अपने हाथों में रख सकते हैं। पद प्राप्ति के बाद इन्दिरा गांधी ने क्या-क्या किया किसी से छुपा नहीं हैं। 'विनायक' ने उनके सकारात्मक-नकारात्मक बिन्दुओं को इसी कालम में कई बार उजागर किया है। तब रस्साकशी का नतीजा यह हुआ कि इन्दिरा गांधी के उसी दौर से नेता जनता को बेवकूफ समझने लगे। जनता जिस लापरवाही से इन नेताओं को चुनती हैं उससे उनकी यह धारणा पुष्ट भी होती है।
वोट देने की वजह व्यापक मानवीय हित तो दूर की बात, व्यापक राष्ट्रीय हित भी नहीं रही। वोट देने की वजहों को गिनाएं तो बड़ा विचित्र लगेगा- किस की लहर है, ज्यादातर लोग किसे वोट कर रहे हैं उसे ही वोट करें अन्यथा अपना वोट खराब हो जायेगा, पार्टी या उम्मीदवार धर्म-सम्प्रदाय और अपने जातीय समूह के हितचिन्तक हैं, उम्मीदवार से कोई दूर तक सम्बन्ध है और ही कोई व्यक्तिश: उम्मीदें, फिर भी वोट उसी का बनता है- या इस उम्मीद में  कि वह हमारे स्वार्थों को पूरा करेगा या भविष्य में उससे ऐसी उम्मीदें हैं। किसी उम्मीदवार-विशेष को वोट इसलिए भी किया जाता है कि उसने आपकी तात्कालिक कुछ जरूरत को पूरा कर दिया, कुछ धन दिया या शराब की चन्द बोतलें उपलब्ध करवा दीं, या किसी दबंग ने धौंस देकर उम्मीदवार विशेष को वोट देने का कह दिया।
इन कारणों के अलावा भी कोई कारणविशेष बताया जा सकता है जिसके बिना पर हममें से अधिकांश वोट कास्ट करते हैं। अगर ऐसा है और नेता हमें बेवकूफ समझते हैं तो इसमें गलत क्या है। कमोबेश सभी राजनीतिक दल और नेता ऐसा समझकर ही चुनाव अभियान की आयोजना करने लगे हैं। देश हित की बात तो उनकी रणनीति का हिस्सा भर है। हित नेताओं के और उनके हित चिन्तकों के सधेंगे। बेवकूफ नहीं है भारतीय आम-आवाम, पर भोली जरूर है। अब इस भोलेपन को उतार फेंकना होगा। वोट की ताकत और उसके नतीजों की समझ हासिल करना जरूरी है। ऐसा नहीं होगा तब तक असल आम-आवाम की स्थितियां बद से बदतर होती चली जायेंगी।

8-मई-2014

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