Tuesday, May 13, 2014

मीडिया का भ्रमजाल कितना मानवीय और कितना लोकतांत्रिक

मीडिया की साख पर एनडीटीवी इंडिया के एक कार्यक्रम में कल शाम ' हिन्दू' पत्र की स्मिता गुप्ता ने बताया कि चुनावी खबरों के सिलसिले में उनकी उत्तरप्रदेश के ग्रामीणों से हुई बातचीत में गुजरात के विकास मॉडल का आकर्षण दिखा, जब उनसे पूछा गया कि क्या आप इन्हें सच मानते हैं तो उनका जवाब था कि 'हां' हमने यह 'मीडिया' से सुना। जब पड़ताल की गई तो पता चला कि गांव में पार्टीविशेष का टीवी स्क्रीन लगा प्रचार वाहन आकर गया था। यानी ग्रामीण स्क्रीन पर दिखाई जाने वाली बात को मीडिया की बात मान रहे हैं। वैसे भी किसी पार्टीविशेष की बात भी करें तो अधिकांश खबरिया चैनलों का झुकाव साफ नज़र आता है। इसके पीछे के कारण चाहे कुछ भी हों। भाजपा ही क्यों प्रत्येक राजनीतिक पार्टी आम-आवाम को भ्रमित कर वोट बटोरने में लगी है ऐसे में यदि नरेन्द्र मोदी इस अटकल का चरम उपयोग करने में सफल होते हैं तो कम से कम राजनीति करने वालों को तो एतराज नहीं होना चाहिए। आम आवाम को बेवकूफ बनाने का ऐसा सामथ्र्य हासिल करने से उन्हें कौन रोक रहा था? देश के कमोबेश सभी राजनीतिक दलों ने जब गर्त को ही गंतव्य मान लिया हो तो इस मुद्दे पर अकेले मोदी को भुंडाने के क्या मानी?
इसी तरह पार्टीविशेष के प्रचार वाहन में कही बात को मीडिया की बात मानने पर ग्रामीणों को गंवार मानने वाले यह कैसे नजरअंदाज कर जाते हैं कि हाल ही के बरसों में पनपे सोशल मीडिया को वे आधिकारिक कैसे मान लेते हैं। तर्क से तथ्यात्मक विश्लेषण करें तो सोशल मीडिया की अधिकांश पोस्टें और ट्विट खरी नहीं पाए जाने के बावजूद भरोसा हासिल कर ही रही हैं, जबकि सोशल साइट पर सक्रिय लोगों की तादाद देश के कुल वोटरों की एक प्रतिशत भी नहीं। चूंकि ऐसे सोशलसाइट-जीवियों को पढ़ा-लिखा और समझदार मान लिया है सो 'गंवारों' को हांकने का हक उन्हें हासिल हो ही जाता है।
इन सोशल साइट्स को तकनीकी रूप से तो मीडिया माना जा सकता है पर इसे सचमुच में मीडिया कहा जा सकता है? ऊपर उल्लेखित एनडीटीवी इंडिया के इसी कार्यक्रम में जनसत्ता के कार्यकारी सम्पादक ओम थानवी सोशल साइट्स को मीडिया का हिस्सा मानने से साफ इनकार करते हैं। थानवी की बात को पूरी तरह खारिज इसलिए भी नहीं किया जा सकता क्योंकि अखबार, खबरिया चैनल और सोशल साइट्स-मीडिया के इन तीनों रूपों में उनकी सक्रियता उल्लेखनीय रहती है।
कवि-चिन्तक नन्दकिशोर आचार्य ने बरसों पहले एक आयोजन के बाद यह प्रतिक्रिया दे सचेत किया कि जो प्रस्तुति आपको मुग्ध करे या अपने साथ बहा ले जाए, ऐसी 'मंत्रमुग्ध' कर देने वाली प्रस्तुतियां चूंकि विचार का अवसर नहीं देती इसलिए उन्हें बौद्धिक विलास ही कहा जाएगा। इस तर्क से रूपंकर कलाओं और संगीतक प्रस्तुतियों को मुक्त माना जाना चाहिए।
तो क्या राजनीति के पेशे को पूरी तरह मंत्रमुग्ध भ्रमित कर अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाला पेशा मान लिया जाय ताकि असल मानवीय जरूरतों को नज़रअंदाज कर जिसे ये नेता अपने प्रदर्शन और सामथ्र्य क्षमता से जैसे भी भ्रमित करना चाहें, कर लें।
ओम थानवी जिस बिना पर सोशल साइट्स को मीडिया मानने से इनकार करते हैं क्या उन्हीं कसौटियों को इन खबरियां चैनलों पर नहीं लगाया जाना चाहिए। इस पर विचार करना इसलिए भी जरूरी है कि दक्षिण में लगभग सभी चैनलों के मालिक वहां के राजनेता ही हैं और हो सकता है अगले आम चुनाव तक वैसा मालिकाना हिन्दी भाषी क्षेत्रों के चैनलों का भी हो जाय। भारत क्षेत्रफल और आबादी दोनों ही हिसाब से बड़ा देश है, ऐसे में भ्रमित कर बहुत कुछ हासिल करना मुश्किल नहीं है। तब क्या इस तरह विचार करना जरूरी नहीं हो जाता है कि ऐसे भ्रमजाल कितने मानवीय हैं और कितने लोकतांत्रिक।

13 मई, 2014

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