Saturday, May 3, 2014

नेता-अफसर-पुलिस और मूकदर्शक अवाम

समाज और राजनीति के एक बड़े चिन्तक ने कोई सोलह-सत्तरह वर्ष पहले अफसरशाही की आलोचना पर अनौपचारिक बातचीत में उनका सकारात्मक पक्ष बताते हुए कहा था-ब्यूरोक्रेट्स नहीं होते तो ये नेता देश को बेच खाते। यहां यह बताना जरूरी है कि चिन्तक अफसरशाही के प्रशंसकों में नहीं हैं।
वह बात आज तब याद हो आई जब फेसबुक पर एक स्थानीय नेता की एक पोस्ट देखी-'बीकानेर के कुछ तथाकथित नेताओं ने निजी हित के लिए इंजीनियरिंग कॉलेज, बीकानेर को राजनीति का अखाड़ा बना दिया है।' इस पोस्ट का और इसीबी के अखाड़े में तबदील होने में अफसरशाही की वैसे तो सीधे-सीधे कोई भूमिका नहीं दिखती पर देश को बेच खाने की नेताओं की नीयत जरूर देखी जा सकती है।
देश की आजादी बाद से ही नेताओं में जहां हर तरह का लालच लगातार बढ़ता गया वहीं यह भी पुख्ता है कि इस लालच को पूरा करने में सीमित अंकुश के साथ यह अफसर बड़े सहायक होते हैं। समस्या यही है यह अंकुश अफसरों के अपने लालच के चलते लगातार शिथिल होता गया। नेताओं की लालची इच्छाओं ने इन अफसरों को बजाय जनसेवक बनाने के उन्हें जनआकांक्षाओं के उलट हेकड़ीबाज बना दिया है। अब तो स्थितियां यह भी हो रही हैं कि जो अफसर घाघ हैं वे बिना 'लल' वाले नेताओं के छोटे-मोटे लालच पूरे होने देकर उन्हें अपनी कठपुतली के रूप में उपयोग करने से भी नहीं चूकते।
कुछ अफसर ऐसे भी हैं जो इन सब को बर्दाश्त नहीं कर पाते, वह सेवा छोड़ जाते हैं। बहुत से ऐसे भी हैं जो इस लगभग अमानवीय व्यवस्था में भी दो-पांच से दस-बीस प्रतिशत की मानवीयता कर गुजरते हैं। इनमें से कुछ ऐसे भी हैं जो बिना किसी निजी हित के नेताओं को पूरी तरह स्वेच्छाचारी होने से रोकने में भी सफल होते हैं। इस तरह के अफसर उनसे बेहतर हैं जो सेवा से पलायन कर जाते हैं।
प्रशासनिक अधिकारियों के अलावा जिस तंत्र को इन नेताओं ने सर्वाधिक लकवाग्रस्त कर छोड़ा, वह है पुलिस महकमा। इस महकमे में सामान्य सिपाही से लेकर प्रदेश के सर्वोच्च पद पर बैठे अधिकारी तक को इस रोग से मुक्त नहीं देखा जाता। राजस्थान में इस महकमे का स्लोगन है-'आमजन में विश्वास : अपराधियों में डर' जिन्होंने भी इसे बनाया उनकी मंशा अच्छी ही रही होगी पर छुटभय्यों से लेकर बड़े-बड़े नेताओं की  नीयत यही रहती है कि पुलिस अपने नियम-कायदों से नहीं, उनके कहे से चले, हो भी ऐसा ही रहा है। नेता और पुलिस महकमे की इस जुगलबन्दी में मुख्य साजिन्दा नेता और संगतकार के रूप में पुलिस है, जो अपने हित में अलग सुरताल का मौका निकाल लेने से नहीं चूकती। अब तो ऐसे स्वार्थी अवसर यह पुलिस महकमा कभी कभार नेताओं से ज्यादा निकाल लेता है।
बात इसीबी से शुरू की, खत्म भी उसी पर करते हैं। दसेक साल पहले इस कॉलेज की प्रतिष्ठा ऐसी बनने लगी थी कि भविष्य में इसका स्तर जयपुर की मालवीय रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज के बाद दूसरे नम्बर का हो जायेगा। पर इन राजनेताओं की नजर जब से इस पर पड़ी तब से इसे लगातार नोचा ही जा रहा है। हालात यह हैं कि इसका अस्तित्व मयप्रतिष्ठा रह भी पाएगा कि नहीं। जिन स्थानीय नेताओं की जिम्मेदारी इसकी प्रतिष्ठा बनाए रखने की थी उनकी स्वार्थी करतूतों ने इसे इस हश्र तक पहुंचाया है। जनता जब तक सिर्फ मूकदर्शक बनी रहेगी तब तक बीकानेर ही नहीं पूरे देश की व्यवस्था यूं ही बद से बदहाल होती चली जायेंगी।

1 अप्रेल, 2014

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