सोलहवीं लोकसभा के लिए
हुए मतदान की कल गणना है। इसी के साथ इन खबरिया चैनलों के एक्जिट पोल यानी मतदान बाद के अनुमान की जुगाली भी बन्द हो जायेगी। इन्हीं एक्जिट पोल के आधार पर लोकसभा में संभावित सबसे बड़ी पार्टी के घोषित पीएम इन वेटिंग नरेन्द्र मोदी को लडाने का काम परवान पर है। पार्टी अध्यक्ष राजनाथसिंह, नितिन गडकरी और अरुण
जेटली 'सामे पगे' गांधीनगर पहुंचे। कहते हैं तीनों की इस
यात्रा का मकसद पार्टी के तीन 'बड़ों' को
ठिकाने लगाना था। आडवानी और जोशी तो जाने वाले नहीं थे सो 'बड़ी' सुषमा
स्वराज को साथ ले जाने की कोशिश की। सुषमा को अपमानजनक लगा सो वह भोपाल की ओर उड़ गईं। खैर- भाजपा में जो भी
हो रहा है या जिसके होने की आशंकाएं और संभावना है, मोटामोट वह सब
होगा ही। यानी जो और जैसा मोदी चाहेंगे वैसा ही निर्णय पार्टी अध्यक्ष की हैसियत से राजनाथ करेंगे और संघप्रमुख उस पर मौन मुहर लगा देंगे। कहने को यह पार्टी का अन्दरूनी मामला है, पर क्या
सचमुच कुछ भी अन्दरूनी होता है? सरकार का नेतृत्व
कौन करेगा, किस तरह चलाएगा, उसका
असर देश और समाज पर तात्कालिक और दूरगामी दोनों तरह से पड़ता है। अन्दरूनी तो पूरी तरह किसी एक परिवार का भी अन्दरूनी नहीं होता- सबसे छोटी इस सामाजिक
इकाई में अच्छा-बुरा कुछ भी घटित
का भाई-बन्धों से लेकर
ससुराल-पीहर, ददियाल-ननियाल
तक- और अब तो एकल परिवारों के चलते भाई-बहिन और यदि
माता-पिता या सास-श्वसुर साथ नहीं रहते हैं तो इन
सभी के घर परिवार प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। राजनीति का सम्बन्ध तो सीधा देश-प्रदेश से होता
है, इसके किए के सुखों और दुखों दोनों को भुगतना न केवल समाज को बल्कि अलावा इनके जीवों, वनस्पतियों और धरती-धन को भी होता है। यदि ऐसा नहीं होता तो देश में अब तक साठ साल राज कर चुकी कांग्रेस को
क्यों भुंडाया जाता।
इन चुनावों
में कांग्रेस को पछाडऩे के लिए भाजपा ने उन्हीं युक्तियों और हथकंडों को अपनाया जिन्हें कांग्रेस अपनाती रही है। अन्तर केवल इतना ही कि कांग्रेस जिस खोटे-खरे को सहम
कर या लुका-छिपाकर करती आई उन्हीं
सब को नरेन्द्र मोदी ने कांग्रेस से भी बढ़-चढ़कर धड़ल्ले से अपनाया।
मोदी को पता था कि बिना उग्र हुए कांग्रेस की जड़ों को हिलाया नहीं जा सकता। कांग्रेस और मोदी दोनों ही देश के बजाय कोरपोरेट घरानों, खनिज माफियाओं और ऐसे
ही लालचियों के हित चिन्तक हैं- ये सभी
आश्वस्त हैं कि मोदी हमारे स्वार्थों को कांग्रेस से ज्यादा साधेंगे। एक्जिट पोल के नतीजों के बाद सेंसेक्स का लगातार ऊपर चढऩा और अंबानी-अडानी के शेयरों
में उछाल आना इसकी पुष्टि भी करते हैं।
जनसंघ अपने जमाने में केवल परम्परागत व्यावसायिक समूहों की पार्टी
मानी जाती रही इसीलिए वह कुछ खास हासिल नहीं कर पायी। संघ की संकीर्ण और मैली विचारधारा भी इसमें बड़ी बाधक थी। 1980 में पूरे कायाकल्प के बाद भाजपा बनी और यह मान लिया गया कि दिखाऊ देशभक्ति जाए भाड़ में, राज चाहिए तो कांग्रेस
के लखणों को ही अपनाना होगा और पिछली सदी के अन्त में शासन भी हासिल कर लिया।
कुछ सूचना का अधिकार
कानून ने असर दिखाना शुरू किया और कुछ उच्चतम न्यायालय की सरकार के प्रति लिहाज में कमी के चलते पिछले दस सालों के सपं्रग और कुछ राजग शासन के कबाड़े चौड़े आए। नई आर्थिक नीतियों की सौगात महंगाई से त्रस्त जनता का कांग्रेस से मोहभंग होता दिखा तो इसका लाभ उठाने की राजनाथ की मंशा को नरेन्द्र मोदी की महत्वाकांक्षाओं ने बल दिया और कांग्रेस से बदतर सोच के बावजूद वे राज हासिल करते दीख रहे हैं।
शासन चाहे मोदी करें या कांग्रेस,
आम-आवाम की सामान्य जीवन स्थितियों में कतई अन्तर नहीं आना है। मोदी के गुजरात में मध्य और निम्न वर्गों का जीवनस्तर सुधरने की बजाय गिरा ही है। क्योंकि 'मोदी का विकास' कुल आबादी के दो-तीन प्रतिशत से भी
कम उद्योग-व्यवसाय में लगी उस आबादी
का ही विकास है जो मोदीनिष्ठ हैं। आम-जनता की तकदीर
में तो हर बार छला जाना ही लिखा है-हवा या लहर
में बहकर। अब तो जिसके पास अनाप-शनाप धन है
उसके लिए इन हवाओं और लहरों की दिशा बदलना भी मुश्किल नहीं है।
15 मई,
2014
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