Saturday, May 17, 2014

मोदी राजनाथ के ही दावं हैं

सोलहवीं लोकसभा के कल जब परिणाम रहे थे तब उनका त्वरित आकलन जो सूझा उसे कल दोपहर में ही स्टेटस के रूप में फेसबुक पर डाल दिए गये को साझा कर रहा हूं। 'आजादी के बाद के इन छासठ वर्षों में कांग्रेस ने भ्रमित करके वोट लेने की जो नीति अपनाई, उससे ज्यादा भ्रमित करने वाला आने पर ऐसे ही परिणाम आने थे।इस स्टेटस को डालने  के चौबीस घंटे बाद भी मनन उक्त आकलन को ही पुष्ट कर रहा है।
चुनाव परिणाम तीस साल बाद किसी एक पार्टी को स्पष्ट बहुमत देकर सरकार बनवा रहे हैं। आंकड़े और अपने-अपने आकलनों से सुबह के अखबार भरे हैं, दोहराने की जरूरत नहीं। इन परिणामों को लेकर 1977 की जनता लहर और इन्दिरा गांधी की हत्या और सिखों के कत्लेआम के बाद 1984 की गुस्सा मिश्रित सहानुभूति लहर का मीडिया ने स्मरण भर किया, तुलना नहीं। उक्त दोनों चुनावों के परिणामों की प्रेरक 'लहर' को मान सकते हैं, जिसमें 1977 की कांग्रेस विरोध की लहर खालिस स्वस्फूर्त थी और 1984 की लहर सहानुभूति में रूपांतरित समुदाय विशेष के खिलाफ गुस्से की। 1984 की लहर को खालिस स्वस्फूर्त नहीं तो पूरी तरह कृत्रिम तौर पर पैदा की हुई भी नहीं कह सकते यानी उसमें कुछ गड्डमड्ड-सा मामला रहा।
इन चुनाव परिणामों को जिस मोदी लहर की परिणति कहा जा रहा है वह पूरी तरह बनावटी है। कांग्रेसनीत संप्रग सरकार की साख को 2011-12 में ताक पर रखने का काम अन्ना आन्दोलन ने किया। सूचना के अधिकार कानून से उपजे मामलों में उच्चतम न्यायालय ने और सरकारी अंकेक्षण इकाइयों के फैसलों और रिपोर्टों ने उत्प्रेरक की भूमिका निभाई। अन्ना टीम में टूटन हुई, तात्कालिक परिणामों की उतावली मानसिकता के चलते अरविन्द केजरीवाल की पार्टी से लोगों ने दिल्ली में उम्मीदें बांधी। जल्दी ही मोहभंग की शुरुआत हुई। टूट की वजह से अन्ना का आंदोलन फिस्स हुआ। पहले से पूरी तरह तैयार और तत्पर नरेन्द्र मोदी ने आम-आवाम में उपजे कांग्रेस के प्रति रोष की इस सून को भरना शुरू कर दिया। मोदी ने चुनाव अभियान की व्यवस्थित और आक्रामक रणनीति का आयोजन इस तरह किया कि जहां-जहां कांग्रेस का उनसे बेहतर विकल्प नहीं था वहां-वहां अपने अभियान को लहर में बदलने के उपलब्ध सभी उपायों को अपनाया और अवसरों को भुनाया, सफल भी हुए। इस चुनाव में मोदी ने यह स्थापित किया कि लहर नहीं भी हो और गुंजाइश हो तो उसे पैदा किया जा सकता है।
उत्तरप्रदेश और बिहार में भाजपा ने विकल्प के तौर पर होने पर भी इन दोनों बड़े प्रदेशों के लिए अलग रणनीति बनाई- वहां पांव जमाए दलों से लोहा लेने के लिए उनके द्वारा अपनाई जाने वाली नैतिक-अनैतिक और मानवीय-अमानवीय युक्तियों को उनसे भी नीचे जाकर अपनाया और सफल हुए, परिणाम सामने है। उत्तर-पूर्व, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, तेलंगाना, तमिलनाडु, केरल जैसे प्रदेशों में इसी के चलते भाजपा ने अपने वोट प्रतिशत में बढ़ोतरी दर्ज की।
2002 के दंगे, उसके बाद के एनकाउंटरों के बावजूद छद्म विकास के स्वयभूं प्रतीक बने नरेन्द्र मोदी को लालकृष्ण आडवाणी, मुरलीमनोहर जोशी की मान मर्यादा को ताक पर रख और सुषमा, उमा, शिवराज जैसे समकक्षों को नजरअन्दाज कर पार्टी अध्यक्ष राजनाथसिंह ने 'कांग्रेस के माथै बांधने जोगा' माना और पिछले अपने घोर असफल अध्यक्षीय काल को विस्मृत करवा दिया। इसलिए पार्टी में शाबासी के असल हकदार मोदी नहीं राजनाथ हैं।

17 मई, 2014

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