Wednesday, May 14, 2014

कुछ इस तरह भी

देश का माहौल बदलेगा या नहीं पर मौसम जरूर बदल रहा है। बिन मौसम की बरसात, क्षेत्र में आंधियों के इस मौसम में बरसाती तूफान। कई खेतों में कटा हुआ धान पड़ा है तो मंडियों में भी सरकारी खरीद का धान सडऩे और नष्ट होने को खुला पड़ा है। सरकार के पास जरूरत अनुसार छत के गोदाम नहीं हैं, और ही प्रबंधकीय कौशल है कि इसे तत्परता से सुरक्षित ठिकाना मिल सके। प्राकृतिक आपदाओं की पड़ताल करें तो लगेगा कि उनके अधिकांश कारणों में हमारी करतूतें ही जिम्मेदार है- अपने सुख-साधनों की जुगत में मनुष्य को लखाव ही नहीं पड़ रहा कि वह अपरोक्ष तौर से कैसे और किस तरह दुखों को न्योतता है।
सार्वजनिक या सरकारी सम्पत्ति को तो इसके जिम्मेदार सरकारी कारकून परोटते हैं और ही आम आवाम। ऐसी सम्पत्तियों के प्रति प्रथम, मध्य और अन्तिम दृष्टियां मन में यही उपजती है कि यह हमारी नहीं है। चूंकि हमारी नहीं है इसलिए इन्हें परोटने की जिम्मेदारी भी हमारी नहीं। कुछ जो इससे भी नीचे चले जाते हैं वह बळ पड़ते हड़पने से नहीं चूकते। अमानत में खयानत की शुरुआत यहीं से होती है और भ्रष्टाचार का बीज अंकुरित होना शुरू हो जाता है।
बे-मौसम बरसाती तूफान के इन दो दिनों में निजी संपत्ति के नुकसान के साथ-साथ सरकारी संपत्तियों के नष्ट होने और मंडियों में पड़े धान के भीगने के रहे समाचारों को पढ़-सुन कर लगा कि इस तरह के संकटों के समय हम जिस तरह अपनी धन-सम्पत्तियों को सहेजने में लगते हैं वैसी मंशा इन सार्वजनिक सम्पत्तियों की सुरक्षा को लेकर क्यों नहीं उपजती। आम आवाम में जब से ऐसी उकत आनी बन्द हुई तब से ही मोटी तनख्वाह पाने वाले ये सरकारी अधिकारी-कार्मिक भी अपनी जिम्मेदारी में कोताही बरतने लगे। सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र की चल-अचल सम्पत्तियों की यदि हम सजगता से निगरानी कर लें और सरकारी कार्यालयों में हरामखोरी और रिश्वत पर अंकुश लग जाए तो केवल राजकोषीय घाटा फायदे में बदल जायेगा बल्कि हम किसी कवि मन की कल्पना में जिस देश के सोने की चिडिय़ा होने की आकांक्षा करते हैं वैसा ही कुछ संभव होते ज्यादा बरस नहीं लगेंगे।
धर्म का मानी यह नहीं कि तेईस-साढ़े तेईस घण्टे अंटसंट करते रहें और कुछ मिनट किसी मूर्ति या मजार के आगे खड़े होकर ऐसे किए- धरे काले-पीले को सफेद करवा लें या ऐसे ही कुधन का एक हिस्सा कहीं लोक-दिखाऊ धर्म-कर्म में लगा दें।
धर्म का शाब्दिक अर्थ है जो धारण करने योग्य है, लौकिक, सामाजिक कर्तव्य या लोक व्यवहार सम्बन्धी नियम। अन्य सभी अर्थ इन्हीं अर्थों के विस्तार हैं। उक्त उल्लेखित अर्थों का भाव एकल नहीं सामूहिक है- जो धारण करने योग्य है वह प्रत्येक मनुष्य के लिए धारण करने योग्य होगा। लौकिक-सामाजिक कर्तव्यों में और लोक व्यवहार सम्बन्धी नियमों में सामूहिकता का भाव अन्तर्निहित है। इसलिए धर्म वही है जिसमें जीव-जगत ही नहीं वनस्पति जगत की या कहें पूरी कायनात का, चर-अचर जगत का हित हो। इधर पूरी आधुनिकता इससे ठीक उलट आचरण में लगी है, हमारे हित स्वार्थों के और सोच संकीर्णता की भेंट चढ़ते जा रहे हैं। दुनिया की बात नहीं करें तो भी हमारे देश की आबादी का एक ऐसा हिस्सा है जो सुख के तथाकथित साधनों से सज्जित है- वैसा शेष अधिकांश आबादी के लिए जो कल्पना की बात भी नहीं है- उनका प्रत्येक मिनट-पल पेट पालने की जद्दोजेहद में गुजर जाता है। जो इन्हें भाग्य से जोड़ते हैं, वह धर्म से पलायन करते हैं। खुद के समर्थ होने की पुष्टि के लिए जो ऐसों को कभी-कभार खाना खिला देते हैं, कपड़े वितरित करते हैं या जिसे दान-धर्म कहा जाता है- करते हैं। दरअसल ये कृत्य सामूहिकता के धर्म से बचने की आड़ मात्र हैं। समाधान यही है कि समाज और राज की व्यवस्था सामूहिकता के भाव में बदले, धर्म की असल स्थापना तभी होगी। पूजा-पाठ, इबादत, व्रत और रोजे व्यक्तिगत आस्था की युक्तियां हैं, धर्म की नहीं।

14 मई, 2014

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