Thursday, May 1, 2014

आज फिर आत्मावलोकन

आज के ' हिन्दू' के हवाले से सोशल साइट्स पर जानकारी मिली कि हिन्दी के जाने-माने कवि और वरिष्ठ पत्रकार मंगलेश डबराल-कविता को इतिहास का अन्तिम ड्राफ्ट मानते हुए पत्रकारिता को पहला ड्राफ्ट मानते हैं। इसे पढ़ते ही लगा कि कोई वाक्य रेखांकित वाक्य कैसे बनता है। लेकिन जिस तरह की पत्रकारिता आज हो गई, उसके चलते क्या यह भरोसा किया जा सकता है कि वह इतिहास के प्रथम ड्राफ्ट हो सकने की भूमिका का निर्वहन कर रही है। मीडिया में आधुनिकीकरण की होड़, आर्थिक उदारवादी शिकंजा और इनके चलते मीडिया में आया विचलन ऐसे सन्देहों को पुष्ट करता है। सफलता के बदले मायने और घुड़दौड़ में बदली प्रतिस्पर्धा मीडिया को कोरपोरेट घरानों एवं सबलों और समर्थों के हाथों की कठपुतली बनाने पर तुले हैं। चकाचौंध से निश्चेतन हुआ मीडिया अपने साथ यह सब होने दे रहा है। मीडिया के द्वितीयार्ध-खबरिया चैनलों ने अपनी आंखें इस बदले माहौल में ही खोली और उसका बचपन और किशोरावस्था कब अक्खड़ता में तबदील हुई कहना मुश्किल है। यह कहना अतिशयोक्ति में नहीं होगा कि इन खबरिया चैनलों ने अपनी सुहबत का रंग अब प्रथमार्ध भर रह गई अखबारी पत्रकारिता पर भी चढ़ा दिया।
हिन्दी पत्रकारिता के लगभग सवा सौ साल पुराने इतिहास ने पिछली सदी के दूसरे-तीसरे दशक में करवट ली और आजादी की लड़ाई में अपनी उल्लेखनीय भूमिका निभाई। आजादी बाद आठवें दशक तक सब ठीक-ठाक था या कहें बहुत कुछ उद्देश्यपूर्ण चलता रहा। पाठकों को स्मरण होगा कि पत्रकारिता के लिए सर्वाधिक मुश्किल दौर माना जाने वाला उन्नीस माह का आपातकाल भी इसी दशक में रहा। नवें दशक में शुरू हुए पटरीउतार को आज जिस रूप में देख रहे हैं, वह विश्लेषण का विषय है। हो सकता है आपातकाल ने पत्रकारिता को आत्ममंथन का मौका दिया हो और कुछ को लगा हो कि इस बंधी-बंधाई लीक पर और दृढ़ता से चलना है और कुछ वे जो बाद की पीढ़ी के हैं उन्हें या वे जिन्होंने केवल रुतबे के लिए इस व्यवसाय को अपनाया-दोनों ही तरह के ऐसों में विचलन गया और बाद के इन वर्षों में आर्थिक उदारीकरण के माहौल और खबरिया चैनलों की सुहबत ने उनमें व्यावहारिक विचलन की अनुकूलता भी दे दी। इस पटरीउतार का एक बड़ा कारण ये मान सकते हैं कि इलेक्ट्रोनिक मीडिया में खबरिया चैनलों की शुरुआत परम्परागत और प्रतिष्ठित अखबारी समूहों ने नहीं की। मनोरंजन के लिए इस क्षेत्र में नये-नये आए देशी इलेक्ट्रोनिक मीडिया समूहों और ऐसे ही विदेशी समूहों ने अपने खबरिया चैनल शुरू किए और दूरदर्शनी समाचारों की नीरस प्रस्तुति के चलते दर्शकों में इनके प्रति आकर्षण बढऩे लगा। यह लालच उन्हें ऐसा भाया कि अपना-अपना दर्शक वर्ग बढ़ाने के लोभ में इनके अधिकांश कार्यक्रम 'पेड' होते चले जा रहे हैं।
कुछ तो खबरिया चैनलों की सुहबत और कुछ अखबारी उद्योग में आई ऑफसेट और इन्टरनेट सुविधा से संस्करण बढ़ाने का लालच भी पनपता गया। अखबार भी लगभग 'पेड' और परोक्ष-अपरोक्ष रूप में आर्थिक लाभ देने वालों की ठकुरसुहाती गाने लग गये। अखबारों के नये-नये संस्करणों और खबरिया चैनलों को क्षेत्र और शहरवार पत्रकारों और स्टिंगरों की जरूरत ने नवागंतुक पत्रकार को व्यवस्थित शिक्षण और प्रशिक्षण दोनों से वंचित कर दिया, परिणाम सामने है-पढ़ और देख सकें तो।
इस सबके बाद भी मंगलेश डबराल पत्रकारिता को इतिहास का पहला ड्राफ्ट मानते हैं तो विचारणीय अवश्य है। वैसे संभवत: उन्होंने यह बात अपने समय की पत्रकारिता के सन्दर्भ में ही कही होगी। आज की अखबारी और इलेक्ट्रोनिक, दोनों तरह की पत्रकारिता खुद अपने इतिहास का पहला ड्राफ्ट तो है ही।

1 मई, 2014

No comments: