Wednesday, May 21, 2014

भावुकता : उम्मीदों में संशय की गुंजाइश

कल दोपहर भाजपा संसदीय दल की बैठक हुई जिसमें अपने नेता के रूप में नरेन्द्र मोदी को औपचारिक रूप से चुन लिया गया। इसके तुरन्त बाद राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के संसदीय दल की बैठक में भी इसी प्रक्रिया को दोहराया गया। इस औपचारिकता के बाद तय समय पर मोदी राष्ट्रपति से मिले। उन्हें सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर लिया गया है। वे अब पीएम इन वेटिंग से मनोनीत प्रधानमंत्री हो गये हैं। 26 की शाम शपथ लेंगे तो देश और खासतौर से वे मतदाता जिनकी उम्मीदें मोदी से बंधवा दी गईं, गर्दन ऊपर कर अच्छे दिनों को उडीकने लगेंगे। इनमें भाजपा को मत देने वाले वे तीस प्रतिशत से कम मतदाता और सत्तर प्रतिशत से थोड़े ज्यादा वे भी शामिल हैं-जिन्होंने या तो भाजपा के खिलाफ मत दिया या भाजपा को नहीं दिया। यह विश्लेषण कोई नया नहीं है, कांग्रेस ने 1984 में डाले गये कुल मतों के आधे से थोड़े ही ज्यादा मत हासिल किये अन्यथा कांग्रेस भी लगभग तैंतीस प्रतिशत मत प्राप्त करके ही अब तक राज करती आयी है।
खैर, जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया देश ने अपनाई है, यह उसकी सीमाएं, कमियां हैं। दूसरी तरह की प्रक्रियाओं की भी अपनी तरह की सीमाएं और कमियां जाहिर हैं इसलिए इन पर चर्चाएं तो कर सकते हैं पर रंज नहीं।
भाजपा और राजग की कल की संसदीय बोर्ड की बैठकों के बाद खबरिया चैनलों और आज के अखबारों की झलकियां इन बैठकों से सम्बन्धित हैं। इन बैठकों से सम्बन्धित खबरियां चैनलों में प्रसारित क्लिप्स और खबरें तथा अखबारों की खबरें गद्गदी और उम्मीदी भाव में प्रसारित-प्रकाशित हुई। पिछले कुछ वर्षों में मीडिया का चरित्र और मानस बदला है। उसमें इससे ज्यादा उम्मीदें की भी नहीं जा सकती। एक बात से सहमति है ही कि मोदी आम सभाओं में जिन तेवरों में बात करते थे उनसे भिन्न तेवरों में उन्होंने चुनावों से ठीक पहले मीडिया को साक्षात्कार दिए, और फौरी तौर पर रैलियों में दिए उनके भाषणों और कल के भाषण की तुलना की जाय तो कल के तेवर बिलकुल उनसे उलट थे। शंकाएं यहीं उपजती हैं कि मोदी में सचमुच परिवर्तन आया है या ये शैली उनकी चतुराई है।
मोदी कल जब संसदीय बोर्ड की बैठक के लिए संसद भवन में प्रवेश करने लगे तो उसकी पहली सीढ़ी पर चढऩे से पहले झुके और सिर लगाकर नमन की मुद्रा अपनाई। फिर जब उन्हें बोलना था तो अपने प्रचलित तेवरों से उलट तेवर अपनाए। 2002 में उन्हें राजधर्म की सीख देने वाले अटलबिहारी वाजपेयी का उल्लेख करते कुछ गलगले हुए और फिर कल के दिए आडवाणी भाषण के समर्पणी शब्द 'कृपा' का उल्लेख करते कुछ क्षण झुकने की मुद्रा बनाई और फिर पानी का इशारा किया, घूंट लेकर बाकायदा अपने भावों का प्रदर्शन किया। अपनी ड्यूटी के बावजूद मीडिया ने इस पूरे 'सीन' का विश्लेषण नहीं किया लेकिन सोशल साइट्स पर इन नाटकीय भंगिमाओं का विश्लेषण शालीनता और छीछालेदर दोनों तरह से हुआ। 'विनायक' छीछालेदर को भाव नहीं देता है पर कुछ शालीन प्रतिक्रियाओं का यहां उल्लेख जरूर करना चाहेगा।
'लगता है भारत में व्यावहारिक राजनीति का स्वांगकाल शुरू हो रहा है, इसकी झलकियां इन्दिरा गांधी के काल में कभी-कभार देखने को मिल जाती थी, स्मृतियां हरी हुईं आज।'
'फिल्म में नायक रोने का अभिनय करता है और दर्शक सच्ची मुच्ची रोने लग जाता है। बहुत सारे दर्शक तो तीन-चार रूमाल भिगो लाते हैं... मेलोड्रामा (भावुकता) दर्शक से कनेक्ट करने का प्रभावी माध्यम बन जाता है।Ó
'भावुकता विवेक का हरण और शोषण का पोषण ही करती-करवाती है।'

21 मई, 2014

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