Saturday, May 24, 2014

कांग्रेस का हश्र

अपने को सवा सौ साल से ज्यादा पुरानी बताने वाली पार्टी इन आम चुनावों के बाद खुद को भारी संकट में तो मान रही है पर उससे निकलने का रास्ता उसे सूझ नहीं रहा है। इस पार्टी पर सबसे पहला संकट पिछली सदी के सातवें दशक के अंत में देखा गया लेकिन इन्दिरा गांधी ने तब अपने पिता जवाहरलाल नेहरू के सहयोगियों को हाशिए पर करके अपनी दृढ़ता का परिचय दिया। पूर्व-रियासतों के विशेषाधिकार समाप्त करने और बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद 1971 के भारत-पाक युद्ध में विजय दिलाने वाली इन्दिरा गांधी में तब के बड़े विपक्षी नेता अटलबिहारी वाजपेयी को दुर्गा दिखने लगी। लगातार मिलती शाबासियों और लोकप्रियता से व्यक्ति का विवेक कुंद हो ऐसे उदाहरण बहुत कम मिलते हैं। इसका अपवाद इन्दिरा गांधी भी नहीं थी सो विवेक खिसकने में ज्यादा समय नहीं लगा और 1975 के मध्य तक देश पर आपात्काल लाद दिया। इन्दिरा गांधी को मिले संस्कारों ने जोर मारा होगा सो 19 महीने बाद ही फैसला बदलना पड़ा। इस इन्दिरा समय को कांग्रेस का अमीबाई काल कह सकते हैं, कई बार टूटी और हर बार इन्दिराई कांग्रेस ने ही असल रूप लिया।
उन्नीस सौ सतहत्तर के बाद भी कांग्रेस अब जैसी घोर निराशा में थी, जनता सरकार ने 1978 में चिकमंगलूर के उपचुनाव में जीत कर आईं इन्दिरा गांधी की सांसदी रद्द कर दी। आपात्काल की करतूतों की जांच के लिए बने शाह आयोग के समन और पेशियां अलग से थीं- अचानक इन्दिरा एक दिन केवल सड़क पर उतरीं बल्कि बैठ ही गईं। नेहरू की बेटी से जनता ने ऐसी उम्मीदें नहीं की थी। इन्दिरा में नायकत्व की छवि दिखने और कांग्रेस के लौटने में समय नहीं लगा। पर अब समय पिछली सदी के नवें दशक से एकदम भिन्न है, इन्दिरा जैसी नेता कांग्रेस के पास है और ही छिन्न-भिन्न विपक्ष। ठीक कांग्रेसी चरित्र या कहें उससे भी बढ़-चढ़कर अपना चुकी भाजपा ने कांग्रेस के किसी भी बड़े नेता से कद बढ़ाने की नरेन्द्र मोदी को केवल छूट दी बल्कि पैरों के नीचे आसन देने में भी कमी नहीं रखी।
कांग्रेस में इसके ठीक उलट स्थिति उस स्थानीय कैबत के समान है जिसमें कहा जाता है कि 'दूल्हे के मुंह से लार टपक रही है तो बेचारे बराती क्या करें।' कांग्रेसियों ने पार्टी को चलाना विवाह-शादियों की तरह पारिवारिक मामला मान लिया। तभी राहुल गांधी के हर बचकाने को प्रौढ़ता मानने लगे। नतीजतन, कांग्रेस अपने सबसे बुरे समय से गुजर रही है।
कांग्रेस में आज भी बेहतर विवेकी नेताओं की कमी नहीं है, बावजूद इसके वे दिन को दिन और रात को रात कहने का आत्मविश्वास तक नहीं जुटा पा रहे हैं। चापलूसी से हैसियत हासिल नेता या वे जिन्होंने मान लिया कि चामत्कारिक नेता की छवि के बिना नरेन्द्र मोदी से पार नहीं पा सकते। ऐसों ने- प्रियंका का जाप शुरू कर दिया है। इन्हें यह भी देखना चाहिए कि भाजपा की जीत केवल मोदी की जीत नहीं है। उसमें कांग्रेस के कुशासन और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े संगठनों के सदस्यों के नि:स्वार्थ योगदान का भी इस चुनाव में बड़ा योगदान है। मोदी का शासन कुशासन की बदनामी लेगा या नहीं, बाद की बात है पर कांग्रेस ने आरएसएस जैसा ढांचा खड़ा करने की ईमानदार कोशिश राज मिलने के इन छासठ वर्षों में कभी की ही नहीं। वह हमेशा किसी किसी तरीके से मतदाताओं को भ्रमित कर वोट लेने में लगी रही। इसका ही नतीजा है कि कांग्रेस आज ऐसे अंधे मोड़ पर खड़ी है, जहां से कोई गंतव्य नहीं दिखाई दे रहा।

24 मई, 2014

1 comment:

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

कांग्रेस को 4 साल हाथ पर हाथ धर का बैठना चाहि‍ए . 5वे साल समीक्षा कर के उतरना चाहि‍ए