Saturday, August 10, 2013

राजस्थानी और उसकी अकादमी कुछ अपनी, कुछ सुनी-सुनाई—तीन

केन्द्रीय साहित्य अकादमी के राजस्थानी कर्णधारों पर समूह विशेष और क्षेत्र विशेष की उपेक्षा जैसा ही आरोप राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी पर भी लगता है। इस अकादमी पर उसके तीन प्रमुख उद्देश्यों में से दोभाषा और संस्कृति की अनदेखी का आरोप है तो वहीं बीकानेर स्थित इस अकादमी के बारे में यह भी पूछा जाता है कि राजस्थान के तैतीस जिलों में से कितने जिलों को यह अकादमी अपने कार्यक्षेत्र में मानती है। कहा जाता है कि प्रदेश के लगभग आधे जिलों और वहां की स्थानीय बोली के सृजकों को उपेक्षित रखने वाली यह अकादमी क्या राजस्थानी को इसी तरह आठवीं अनुसूची में शामिल करवाने का दम भरती है।
प्रश् यह भी उठता है इस अकादमी ने अब तक कविता, कहानी, उपन्यासों आदि जैसी साहित्यिक विधाओं के अलावा भाषा और संस्कृति से सम्बन्धित किन-किन विषयों और किन-किन क्षेत्रों में क्या-क्या काम किया है और क्या बिना सामाजिक विज्ञान, अर्थशास्त्र, इतिहास, राजनीति शास्त्र, दर्शन और विज्ञान के विभिन्न अनुशासनों जैसे जरूरी विषयों में बिना काम हुए केवल कविता, कहानी, उपन्यासों आदि से ही राजस्थानी विकसित हो जायेगी? लोक की भाषा अखबारों और लोकप्रिय पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से भी बनती है, राजस्थानी का एक भी पूरा अखबार या पत्रिका शुरू होकर लोकप्रिय क्यों नहीं हो पायी। राजस्थानी उन्नयन के उक्त आधारभूत प्रयासों में विफल रहने के बाद एक क्षेत्र विशेष के राजस्थानी आन्दोलनकारी तो राजस्थानी की मान्यता की मुख्य जरूरत अलगाववादी तर्कों से ही देने लगे, इस तरह के अशुद्ध साधनों से कुछ शुद्ध और सकारात्मक हासिल करना संभव हो पाएगा?
अब लगे हाथ अकादमी के स्थानीय कार्यालय और उसकी कार्यप्रणाली पर भी बात कर लेते हैं। इन दिनों वह सुर्खियों में इसलिए भी रही कि वहां के अधिकांश पद खाली पड़े हैं, पहले तो पद खाली होने पर मितव्ययता की आड़ में नहीं भरे गये और अब सरकार की प्राथमिकताओं में नहीं होने के चलते पद भरने के निर्णय नहीं हो पा रहे हैं।
अकादमी कार्यालय जब भरा-पूरा था और बीच शहर के नागरी भण्डार में लगता था तब भी कौन-सा व्यवस्थित चलता था। पन्द्रह वर्ष पूर्व दिवंगत हो चुके राजस्थानी लेखक मूलदान देपावत तो इस अकादमी के जिक्र पर टोकते थे कि अकादमी नहीं इसेएकआदमीकहो, दफ्तर में जाने पर अधिकांश बार एक को छोड़कर शेष नदारद मिलते हैं। यह स्थिति तो तब थी जब दफ्तर ऐसी जगह था जब दिन भर आए-गए रहते थे। बाद में स्थानीय नेताओं ने राज्य सरकार से कार्यालय के लिए भूमि ऐसी जगह आवंटित करवाई कि सामान्य तौर पर वहां तक किसी का जाना संभव ही नहीं है या कहें वहां तो अड़ी में ही कोई जाता है। अकादमी स्थापना के शुरू के कुछ समय को छोड़ दें तो आज तक कोई नियमित सचिव की नियुक्ति की ही नहीं गई। जिस पार्टी की जब सरकार रही तब तब उस पार्टी के कार्यकर्ताओं या उपकृतों को ही सचिव पद पर प्रतिनियुक्तियां दी गईं। इनमें से अधिकांश नेसमसाण किरा, कि आया गया राभाव से यहां समय गुजारा। बहुत पारंगत कभी यहां रहे नहीं। उपसचिव और सहायक सचिव के पद पर जरूर स्थाई नियुक्तियां रहीं, ये दोनों पद भी अब खाली पड़े हैं।
इस कार्यालय के बारे में जो बातें होती रही हैं, यदि वह सच है तो मामला बेहद गंभीर है। कहा जाता है, स्टोर का भौतिक सत्यापन वर्षों से नहीं हुआ है, अधिकांश सामान खुर्द-बुर्द है। अकादमी पुस्तकालय से कितनी पुस्तकें गायब है किसी को नहीं पता। अकादमी के द्वारा प्रकाशित पुस्तकों और पत्रिका जागती जोत के स्टॉक का भी लम्बे समय तक संधारण नहीं हुआ और इस सबके चलते कर्मियों अधिकारियोंके सेवानिवृत हो जाने पर चार्ज लिए-दिए जाने की कोई औपचारिकताएं नहीं होती, और तो और कई कर्मचारियों का कोई सर्विस रिकार्ड नहीं है, सर्विस फाइलें नदारद हैं। कुछ कर्मचारियों के सेवानिवृति लाभ अटके हुए है। कर्मचारी, अधिकारी जब लगभग पूरे थे तब भी उन्होंने अपने-अपने कार्य समय को अपनी-अपनी सुविधा से दो-दो घंटे में बांट रखा था और उसी समय रस्म अदायगी या कहें हाजरी के लिए पहुंचते थे। ऐसा नहीं कि इन सब करतूतों की जानकारी समय-समय पर नियुक्त अध्यक्षों को नहीं होती थी। होने पर करते भी क्या, सब ने जैसे-तैसे अपने-अपने कार्यकाल ही पूरे किए हैं। किसी ने भी इस अव्यवस्थित कार्यालय को व्यवस्थित करने की जहमत नहीं उठाई। शहर के वे सभी लेखक जोराजस्थानीनाम की झण्डाबरदारी करते हैं, उन सभी को अकादमी की इन सभी स्थितियों का ज्ञान है, पर पता नहीं अकादमी की इस अव्यवस्था को लेकर उनके मुंह क्यों बन्द हैं।
(समाप्त)
1o0 अगस्त, 2013


1 comment:

navneet pandey said...

आपने बहुत ही तथ्यपरक और निरपेक्ष विश्लेषण करते हुए बहुत ही गंभीर मुद्दों पर बात की है। वस्तुस्थिति लगभग कमोबेश वही है जिनकी ओर आपने बहुत ही साफ़गोई से इशारा किया है। मुझे आपके ये तीनों आलेख अकादमी के ऎतिहासिक शिलालेख से लग रह हैं सच से ओतप्रोत। बधाई इस गहरी पड़ताल और उसे इस तरह प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करने के लिए। आपने आईना दिखाने की कोशिश की है..देखते हैं कितने राजस्थानी हितेषी, विद्वान इस में अपना चेहरा देख पाने का साहस जुटा पाते हैं?