Thursday, August 22, 2013

धर्म गुरुओं पर भरोसा !

प्रवचनकार से धर्मगुरु बने आसाराम अपने को बापू कहलवाते हैं। पिछले एक अर्से से वे लगातार विवादों में रहने लगे हैं। ताजा विवाद एक किशोरी द्वारा उन पर दुष्कर्म का लगाया वह आरोप है जिसमें कानून के अनुसार स्वयं आसाराम को ही यह साबित करना है कि वह निर्दोष हैं। पिछले बीस-पच्चीस वर्षों से अपने देश में प्रवचनकारों, कथावाचकों, संन्यासियों, पीर-फकीरों और धर्मगुरुओं की बाढ़ सी गई है उक्त अलग-अलग वर्गों में इनकी छंटाई करना सामान्य श्रद्धालु के लिए भी मुश्किल हो गया है। इसलिए कइयों को तो बाबा कह कर ही काम चला लिया जाता है। श्रद्धा-प्रतीक बने इन लोगों में से कई शादी-शुदा हैं तो कई कुंआरे हैं कई बाकायदा गृहस्थ हैं, बाल-बच्चे हैं।
पिछले दो दशकों से भरमार में हो लिए यह लोग अपने अतीत के बारे में ना तो बताना चाहते हैं और ना ही किसी श्रद्धालु की रुचि इसे जानने की देखी जाती है। इनमें से कई बाबा तो वंशानुगत ही चल रहे हैं। राजशाही समाप्त हो गई लेकिन इन अधिष्ठाताओं की वंशानुगत ठसकाई जारी है।
सार्वजनिक जीवन में इतने शोध होते हैं, तहकीकातें होती हैं, छिद्रान्वेषण होते रहते हैं, कई प्रकार एनजीपीओ सक्रिय हैं पर पता नहीं क्यों इन बाबाओं की पड़ताल नहीं होती। इन बाबाओं का ना केवल पूर्व का जीवन देखा-समझा जाना चाहिए, बल्कि वर्तमान मुकाम तक ये किन-किन हथकंडों से पहुंचे हैं और किस तरह और क्या-क्या ये करते रहे है, उसे भी सार्वजनिक किए जाने की जरूरत हैं। इन बाबाओं के किलेनुमे आश्रमों में ताक-झांक लगभग नामुमकिन होती है। कोई मुंह खोलना भी चाहे तो दाबा-चिंथी होती है या इनके श्रद्धालु मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं। हालांकि मीडिया-विस्फोट के चलते अकसर कुछ ना कुछ चौड़े होता रहता है, लेकिन इतना होना पर्याप्त नहीं है।
तमाम वे लोग जो किसी ना किसी तरह के अनर्गल और भ्रष्ट कामों में लगे हैं या ऐसे ही तरीकों से किसी सामाजिक हैसियत को हासिल कर चुके हैं। ऐसे सभी लोग अन्दर से इतने कमजोर पाए जाते हैं कि वे चमत्कारी घोषित व्यक्ति के आसरे या अनुकम्पा के आकांक्षी होने को आतुर रहते हैं। भ्रष्टों और इन तथाकथित धर्मगुरुओं की भद्दी-जुगलबंदी ना केवल इनको परस्पर प्रतिष्ठित करती रहती है बल्कि इनके काले और पीले दोनों तरह के कारनामों को ढांपने का काम भी बखूबी करती है।
इस तरह के कारनामों को उघाड़ने का काम मीडिया (टीवी-अखबार दोनों ही) भी तभी तक करता है जब तक कि इनका मुंह बंद नहीं करवा दिया जाता। मुंह बंद करने का तरीका भी बहुत शालीन है, विज्ञापन। टीवी का समय और अखबार में स्थान खरीद लो तो मीडिया के इन दोनों ही अंगों की नाड़ लगभग दब जाती है।
दक्षिण के नित्यानन्द, आसाराम, निर्मल बाबा जैसे हाल के बड़े उदाहरण हैं जिनका काफी कुछ उघड़ने के बावजूद उनके प्रति श्रद्धा और उनका धंधा-बादस्तूर है। छोटे-मोटे ठगोरों के उदाहरण तो सैकड़ों नहीं हजारों मिलेंगे जिनमें से अधिकांश के तो मामले भी दर्ज नहीं होते हैं। इसके लिए जरूरी है समाज में आत्मबल और खरेपन की, इन दोनों गुणों का ही ह्रास लगातार होता जा रहा है। भ्रष्टाचार इतना प्रभावी और ताकतवर बन कर उभर रहा है कि इसके बरअक्स होना तो दूर गुंजाइश मिलते ही व्यक्ति इसी के रंग में रंगीजना ही बेहतर समझता है। 1947 में देश एक तरह की गुलामी से बाहर आया था। अवमूल्यन और भ्रष्टाचार की इस दूसरी गुलामी को समाज महसूस करने लगेगा तभी इससे निकलने की छटपटाहट की गुंजाइश भी बनेगी। फिलहाल तो ऐसी संभावना कम ही दीख रही है। जिन धर्म गुरुओं को रास्ता बताने वाला माना जाता रहा है उनमें से अधिकांश को बेरास्ता देखे जा सकता है।

22 अगस्त, 2013

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