Tuesday, August 20, 2013

भगतसिंह को ना कहें शहीद ना ही गांधी को राष्ट्रपिता

कुछ दिन पहले खबर आई थी कि भारत सरकार के गृहमंत्रालय ने सूचना अधिकार के तहत चाही जानकारी के जवाब में बताया कि भगतसिंह शहीद हैं कि नहीं, तत्सम्बन्धी कोई दस्तावेज उपलब्ध नहीं है कहने को तो इसे आरटीआई कार्यकर्ता का खुराफाती प्रश् कह सकते हैं लेकिन भारत सरकार के गृहमंत्रालय में बैठे अधिकारियों के बारे में क्या कहेंगे यह तो हो सकता है कि सरकारी रिकार्ड में औपचारिक रूप से यह ना मिलता हो कि भगतसिंह को शहीद का दर्जा दिया गया है कि नहीं लेकिन इस तरह के प्रश्नों के जवाब देने से पहले मंत्रालय के सूचना अधिकारी को थोड़ा तो ठिठकना चाहिए था-इस संवेदनशील जानकारी का उत्तर देने से पहले अपनी बुद्धि पर इतना भरोसा करने की जरूरत नहीं थी, अपने समकक्षों और उच्च पदस्थों से सलाह करते इससे पहले भी मोहनदास कर्मचन्द गांधी को लेकर चाही गई जानकारी के सम्बन्ध में उत्तर दिया गया था कि गांधी को राष्ट्रपिता घोषित करने के कोई विधिवत दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं इस तरह की औपचारिकताओं के पूरी होने ना होने का ना तो भगतसिंह की छवि पर असर होना है और ना गांधी की फर्क तो काम-काज करने की सरकारी छवि पर पड़ना है जो अब वैसे भी कोई बहुत ठीक-ठाक नहीं रही है भगतसिंह को कोई ना कहे शहीद और ना कहे गांधी को राष्ट्रपिता क्या इतने भर से ऐसी विभूतियों के योगदान को कम किया जा सकता है? भारत सरकार के अधिकांश मंत्रालय ऐसी विभूतियों की पुण्यतिथि और जन्मदिन पर टीवी अखबारों में अनके स्मरण के विज्ञापन शाया करवाते हैं जब वे विज्ञापन तैयार होते हैं तब तो यह सवाल नहीं खड़ा किया जाता कि भाई! इन लोगों को किस रूप में याद किया जा रहा है
सूचना का अधिकार कानून इस तरह ना केवल छिलके उतारने का काम करता है बल्कि छिलके की झिल्लियों को भी अलग करके देखने-दिखाने की क्षमता रखता है संभवत इसीलिए भारतीय क्रिकेट कन्ट्रोल बोर्ड से लेकर सभी राजनीतिक पार्टियों के प्राण इस कानून के तहत आने भर की आहट से सूखते हैंचोर के मन में चानणोंजैसी कैबतें लोक में किन तरह के लोगों के लिए बनी हैं?
20 अगस्त, 2013


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