बीते पैंसठ वर्षों में अपने देश की राजनीति अपराधीकरण में और राजनीतिक दल गिरोहों में तब्दील होते गये। लोकतंत्र में बिगड़ाव होता और बढ़ता इसलिए गया कि आजादी के तुरन्त बाद व्यापक तौर पर देश में ऐसा कोई समूह सक्रिय ही नहीं रहा जो यहां के नागरिकों-मतदाताओं में लोकतान्त्रिक
देश के जिम्मेवार नागरिक की समझ विकसित कर सके। आजादी के समय गांधीजी का कांग्रेस को भंग करने का सुझाव इसी से प्रेरित था। वे चाहते थे कि कांग्रेसी आजादी के बाद सामाजिक कार्यों के माध्यम से जागरूकता के लिए काम करें। लेकिन तब तक कांग्रेसियों
ने गांधीजी की बातों को आउटडेटेड मान लिया था और कुछ प्रतिकूलताएं
ऐसी बनी कि गांधीजी इसके फोलोअप के लिए रहे ही नहीं।
राजनीतिक दलों के लिए गिरोह शब्द के उपयोग पर किसी को एतराज हो सकता है लेकिन ये विभिन्न राजनीतिक दल जो अन्यथा तू-तू मैं-मैं और जूतम-पैजार में लगे रहते हैं, निजी हितों के लिए एक होते अब खिसियाते भी नहीं हैं। इसका एक उदाहरण कल फिर देखने को मिला, सभी राजनैतिक दलों से ना केवल सूचना के अधिकार कानून से मुक्ति की छटपटाहट का एक स्वर सुनाई दिया बल्कि आपराधिक मामलों में घिरे ‘राजनेताओं’ के खिलाफ आए उच्चतम न्यायालय के फैसले को बदलने को भी तत्पर देखे गये।
आगामी मानसून सत्र में इन दोनों प्रावधानों को अपने अनुकूल बनाने की इनकी एकता लोकतान्त्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वालों की चिढ़ाने-रिझाने लायक होगी। अन्यथा यह दल लगातार इस साजिश में ही लिप्त पाये जाते हैं कि संसद को चलने ही नहीं दिया जाय।
राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार कानून में लाने, संसद और विधानसभाओं-परिषदों को अपराध-आरोपियों से मुक्त करवाने के ऐसे प्रावधानों को लागू करने की जरूरत का समय आ गया था। लेकिन भ्रष्ट और आपराधिक उपायों से उक्त सदनों में पहुंचे नेताओं को यह सब कहां रास आने वाला था। देश की संसद और प्रदेशों के विभिन्न सदनों में पहुंचे इन हजारों नुमाइन्दों में शायद ही कोई ऐसा होगा जिसने सौ टका शुद्ध साधनों से यह मुकाम हासिल किया हो। इसे अतिश्योक्ति हरगिज ना मानें, यह कटुसत्य है। ऐसी स्थिति में ये राजनीतिक दल गिरोहों के रूप में व्यवहार कर रहे हैं। उससे ज्यादा की उम्मीद करना अपनी नासमझी की साख भरना है।
देश को चलाने वालों की यह गिरोही प्रवृत्तियां
समर्थ होते हर नागरिक को भ्रष्ट और अनैतिक आचरण के लिए प्रेरित करती हैं और अब तो ऐसी करतूतों को लोकाचार की मान्यता भी मिलने लगी है।
जीवनभर भ्रष्ट और अनैतिक आचरण करने वाला जब सेवानिवृत होता है या अपनी अधेड़ अवस्था में अभिनन्दन करवाने की आकांक्षा पालता है या ऐसे किसी की मृत्यु के बाद इनकी तारीफ में कसीदे पढ़ने में संकोच नहीं किया जाता। ऐसा करके क्या हम भ्रष्ट और अनैतिक आचरण को मान्यता और प्रतिष्ठा ही नहीं दे रहे होते हैं।
विचार इस तरह भी किया जाना चाहिए कि भ्रष्ट और अनैतिक तरीकों से सत्ता तक पहुंचे इन लोगों को विभिन्न अपराधों के खिलाफ कानून बनाने का क्या अधिकार है और सत्ता हासिल करने के बाद भी इनके ऐसे आचरणों में सहयोगी की भूमिका निभाने वाले विभिन्न अनुशासनों के शासनिक और प्रशासनिक अधिकारियों को ऐसे कानून और नियम-कायदों को क्रियान्वित
या लागू करने का नैतिक-वैधानिक अधिकार हो सकता है?
विनायक पहले भी कई बार इस तरह से विचारने का आग्रह कर चुका है और बता चुका है कि जब तक हम अपने वोट के उपयोग की जिम्मेदारी और ताकत नहीं समझेंगे। तब तक देश की स्थितियां बद से बदत्तर ही होती जायेंगी। किसी भी राजनीतिक गिरोहों से सुधार की उम्मीद करना, जानबूझकर भ्रम पालने से ज्यादा नहीं है।
2
अगस्त, 2013
1 comment:
namaskaar
ek dum yartha hai .
saadar
Post a Comment