Thursday, August 8, 2013

राजस्थानी और उसकी अकादमी कुछ अपनी, कुछ सुनी-सुनाई—एक

इसी माह की छह तारीख को अपनी बात में राजस्थान की सृजन अकादमियों के सम्बन्ध में बात की थी। बीकानेर स्थित राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी की बात भी अलग से करना जरूरी लगता है। इस अकादमी की स्थापना को तीस वर्ष हो गये हैं, किसी भी संस्थान को एक व्यवस्थित रूप लेने के लिए इतना समय पर्याप्त से ज्यादा माना जा सकता है, लेकिन ना तो इस अकादमी का और ना ही इसके कार्यकलापों का व्यवस्थित रूप आज तक बन पाया है। इसके लिए बड़े जिम्मेदार तो यहां के शासकों को ही ठहराया जा सकता है क्योंकि उन्होंने कभी इनको रस्मअदायगी से ज्यादा लिया ही नहीं। लेकिन समय-समय पर नियुक्त अध्यक्षों को भी बरी नहीं किया जा सकता। अधिकांश अध्यक्षों ने राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति को दरकिनार कर या तो अपनी चलाई या फिर पद को भोगा और टाइमपास भर किया है। राजस्थानी और उसकी अकादमी को लेकर प्रचलित कुछ धारणाओं को बिन्दुवार प्रस्तुत करना सुविधाजनक होगा।
राजस्थान प्रदेश का गठन कुछ रियासतों को मिलाकर किया गया। देश के अब सबसे बड़े भू-भाग के इस प्रदेश के विभिन्न इलाकों की अपनी-अपनी बोलियां थीं जिनमें मारवाड़ी, मेवाड़ी, हाड़ोती, ढूंढ़ाणी, शेखावाटी, मेवाती, वागड़ और ब्रज आदि का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। इनमें से व्यवस्थित भाषा के रूप में स्वीकार्यता केवल ब्रज भाषा को ही मिली हुई थी। प्रदेश के शेष अधिकांश हिस्सों में साहित्य सृजन के पेटे बात करें तो डिंगल की स्वीकार्यता लगभग देखी जाती है और आज राजस्थानी जिस साहित्य को अपनी धरोहर मानती है, लगभग वह प्राचीन डिंगल का ही खजाना है।
   प्रदेश के गठन के बाद से ही उत्तर पश्चिम वाले आधे हिस्से में राजस्थानी के नाम पर भाषा की हलचल शुरू हुई, जिनमें पश्चिम का मारवाड़, उत्तर-पश्चिम का थळी और उत्तर-पूर्व के शेखावाटी और इनसे लगे इलाके प्रमुख थे। ये इलाके मारवाड़ी और शेखावाटी बोली के क्षेत्र थे और राजस्थानी भाषा की झंडाबरदारी भी इन्होंने ही ली। इसी सिलसिले को अमलीजामा पहनाने को बीकानेर में ही राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति संगम की स्थापना हुई, बाद में जिसे अकादमी का रूप दिया गया।
प्रदेश के इस आधे भू-भाग की भाषागत हलचल को शेष प्रदेश के कलमजीवी ठिठक कर या संशय से देखते रहे हैं, कमोबेश ऐसी स्थिति आज भी देखी जा सकती है। यद्यपि अकादमी स्तर पर गाहे-बगाहे अन्य बोलियों के लेखन और लेखकों को जोड़ने के सतही प्रयास हुए हैं, लेकिन बात कुछ बनती लगी नहीं है। भक्तिकाल से भाषा रूप में स्वीकार्य ब्रज की अपनी ठसक है तो मारवाड़ी-शेखावाटी के अलावा अन्य शेष बोलियों को लगता है कि इस तथा-कथित राजस्थानी में हमारा अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। शेष बोलियों की इस शंका के निदान के गंभीर प्रयास ना तो अकादमी स्तर पर होते देखे गये और ना ही राजस्थानी के स्वनाम धन्य लेखकों की ओर से।
यह तो हुई प्रदेश परिपेक्ष में राजस्थानी की बात। अब कर लेते हैं उस साहित्य की बात जिसे राजस्थानी कहा जाता है। धरोहरी साहित्य को छोड़ दें तो राजस्थानी में भी स्तरीय सृजन हुआ है, लेकिन अधिकांश अन्य भारतीय भाषाओं के समकक्ष रख कर देखें तो उसकी मात्रा बहुत कम मानी जाती है।
राजस्थानी के कई लेखकों के सन्दर्भ से कहा जाता है कि वे राजस्थानी कोसरायभाषा के रूप में परोटते हैं, ऐसे साहित्यकारों को भी तीन श्रेणियों में देखा जा सकता है। एक वे जो हिन्दी में स्थापित लेखक हैं और उनका राजस्थानी सृजन या तो राजस्थानी के पुरस्कारों के लिए था या है और वे लेखक जो मसिजीवी थे और हैं, ऐसे लेखक थोड़ा-बहुत ही सही इस भाषा में सृजन कर अपनी आजीविका में कुछ इजाफाभर करने की मंशा से आये, इन्हें राजस्थानी केअतिथि लेखककहा जा सकता है। दूसरे प्रकार के वे ठीक-ठाक लेखक जिन्हें हिन्दी या किसी अन्य भाषा में अपने सम्मानजनक स्थान की उम्मीदें नहीं लगी और राजस्थानी में पोल देखकर वे इस भाषा में गये। इन्हें राजस्थानी केशरणार्थी लेखकके रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है। तीसरे प्रकार के वे लोग जो समाज में लेखक होने की प्रतिष्ठा से प्रभावित होकर लेखक बनना चाहते थे और राजस्थानी की इस पोल में बिना किसी पूर्व तैयारी के घुसपैठ करके काबिज हो बैठे। इन्हें राजस्थानी केधिंगाणिये लेखकके रूप में जाना जा सकता।
(क्रमशः)

8 अगस्त, 2013

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