Wednesday, August 7, 2013

नियंत्रण रेखा पर पड़ौसी की करतूतें

जम्मू और कश्मीर में भारत-पाकिस्तान नियन्त्रण रेखा पर सोम और मंगल के बीच की रात पाकिस्तान की ओर से कुछ हमलावारों ने पांच भारतीय सैनिकों की हत्या कर दी। यह बर्बर कृत्य निन्दनीय है और संसद से लेकर टीवी-अखबारों से होती हुई शहर के पाटों तक इस पर चिन्ता और इसकी निन्दा हो रही है। देखा-सुना गया है कि इस तरह की घटनाओं के बाद निन्दा करते हुए सामान्य आदमी तो गुस्से में अविवेकी भाषा बोलने और उपाय बताने लगता है लेकिन जिन लोगों के पास देश की जिम्मेदारी के महती पद हैं या जिन्होंने हजारों, लाखों वोट लेकर नुमाइंदगी का हक हासिल कर रखा है, वे भी अविवेकी प्रतिक्रियाएं देने लगे तो चिन्ता की बात है। चाहे वह चीनी घुसपैठ के समय की हो या पाक जेल में सरबजीत की हत्या या सीमा पर आए दिन होने वाली जघन्य घटनाएं, पिछले एक अर्से से देखा गया है कि ऐसे समय पर हमारे राजनेता इस तरह से बयान देने और कोसने लगते हैं कि क्यों ना जस का तस या बढ़ चढ़ कर करारा जवाब दे दिया जाय। यहां तक कि अपनी पारी के समय सरकार की बड़ी जिम्मेदारियां निभा चुके बड़े नेता भी भूल जाते हैं कि उनके सरकार में रहते क्या वही कुछ करते जो इस सरकार से चाहा जा रहा है या हमेशा ही कोरी उत्तेजना पैदा कर राजनीतिक लाभ लेने की ही फिराक में रहते हैं।
भारत-चीन सीमा विवाद को छोड़ देते हैं, विनायक इस पर पहले लिख चुका है। भारत-पाकिस्तान का मामला ना केवल संवेदनशील है बल्कि पाक की अन्दरूनी स्थिति को देखते हुए यह लाइलाज भी है, कहने को तो जवाबदेही वहां की निर्वाचित सरकार की बनती है लेकिन जैसी वहां कि परिस्थितियां हैं, असलियत में अधिकृत-अनाधिकृत तौर वहां इतने स्वघोषित जवाबदेह समूह सक्रीय हैं कि लगभग अराजकता की स्थिति है। सबसे प्रभावी तो वहां की सेना है जिस पर निर्वाचित सरकारों का वास्तविक नियन्त्रण कभी रहा ही नहीं। ऐसी सी स्थिति में वहां की खुफियां एजेन्सी आइएसआई (इंटर-सर्विस इंटेलीजेंस) है। इसके बाद पाकिस्तान में ऐसे कई आतंकवादी और ताकतवर उग्र समूह सक्रीय हैं जिनके प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दवाब में वहां के शासक हमेशा रहते हैं।
अब आप किसी ऐसे पड़ौसी की कल्पना कीजिये जिस घर परिवार में कमोबेश ऐसे ही लोग हों तो शाश्वत शान्ति से आप भी रह सकते हैं क्या? आप खुद दबंग हों तो भी शत-प्रतिशत संतोष के साथ आप भी नहीं रह सकते। इस तरह की स्थितियों से निपटने के लिए स्वयं की सावचेती और जरूरत पड़ने पर आंख दिखाने और डांटने-डपटने के अलावा कोई क्या कर सकता है। ऐसे ही पड़ौस की भूमिका में पाकिस्तान है, उसके पास ठीक-ठाक सैन्य ताकत है, चाहे वह किसी तरह बनाई हो। सरकार वहां चुनी हुई रही हो या सैन्य, वह कभी भी पूरे विवेक से निर्णय करने की स्थिति में नहीं रही। अलगाववादियों के बरगलाए आतंकवादी समूह कभी सीमा पर बदमजगी करते हैं तो कभी-कभार धाए-धापे और तनाव में वहां के सैनिक भी कुछ गलत हरकत कर बैठते हैं, कभी कोई सैनिक अफसर भी अपनी सनक तुष्ट करने को इस तरह की वारदातों को अंजाम दिलवा देते हैं।
हमारी सेना के सन्दर्भ से इस तरह की हरकतों के समाचार गाहे-बगाहे सुनते-पढ़ते हैं जिसमें सैनिक खुद को गोलीमार लेता है या कोई अपने कई सहयोगियों को ढेर कर देता है, सीमा या पड़ौसी देश के सैनिकों के साथ भी वह कभी कुछ करता है तो वह खबर हमारे यहां नहीं आती, आती भी है तो रंग बदलकर। यही मनुष्य पाकिस्तान में हैं, वहां की परिस्थितियां ऐसी हैं कि वहां के व्यक्ति तनाव में ज्यादा रहते हैं। इसलिए ऐसी घटनाओं की संख्या उधर से ज्यादा है। हम पड़ौसी हैं तो सबसे ज्यादा प्रभावित हमे ही होना है। ना हम वहां की स्थितियों को सुधारने की अवस्था में है और ना ही उसे नेस्तोनाबूद करने की हैसियत में। ऐसी घटनाओं के उपाय और उपचार कूटनीतिक ही होते हैं, जिनमें वहां के शासकों को कड़ा विरोध जताने या कभी-कभार सेना द्वारा तत्क्षण करारा जवाब देना शामिल हो सकते हैं और होता ही है। अगर ऐसा नहीं होता है तो होना चाहिए, सभी सरकारें करती भी रहीं हैं, फिर वह चाहे राजग की सरकार के समय करगिल की घुसपैठ हो या संसद पर हमला या फिर संप्रग सरकार के समय की 26-11 की मुम्बई की घटना हो या सीमा पर हुई जघन्य वारदातें।
राजनीतिक हितों को साधने के लिए बिना सोचे-समझे आमजन में अतिरिक्त उत्तेजना पैदा करना, ना देश के हित में है और ना ही मानवीयता के।

7 अगस्त, 2013

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