Tuesday, August 27, 2013

‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है’ और खाद्य सुरक्षा विधेयक

चौतरफा महंगाई, डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत में लगातार गिरावट, भ्रष्टाचार और आचरण में अनैतिकता ये सभी एक-दूसरे को प्रेरित और प्रभावित करते हैं। हाल फिलहाल की बात आर्थिक संदर्भों में करें तो कह सकते हैं कि मोटामोट इसके जिम्मेदार प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह हैं और हैं भी। 1 जून 1991 में जब वह पहली बार देश के वित्तमंत्री बने तभी से देश में उन्हीं द्वारा आकल्पित आर्थिक परिदृश्य चल रहा है। बावजूद इसके कि बीच-बीच में भाजपा और संयुक्त मोर्चे की सरकारें रहीं, इन सरकारों ने भी मनमोहनसिंह की आर्थिक नीतियों का ही पोषण किया। इसीलिए कहा जा सकता है कि देश का जो भी लोखा-जोखा है उसके जिम्मेदार मनमोहनसिंह ही हैं। लेकिन क्या सच में ऐसा है, 1947 के बाद कांग्रेस ने या कह सकते हैं जवाहरलाल नेहरू ने आर्थिक विकास का जो मॉडल अपनाया और लागू किया उसकी मोटामोट परिणति इसके सिवा क्या हो सकती थी। नेहरू को लगता था कि बड़े कारखाने, बड़े बांध और बड़ी-बड़ी योजनाएं देश को तरक्की की राह पर ले जा सकती हैं, वे पश्चिम से प्रभावित थे, इस प्रभाव में जो आर्थिक नीतियां बनाई और अपनाई, उसके अनुरूप और उसी आधारशिला पर आर्थिक ढांचे को खड़ा करना बाद के शासकों का या कहें नीति नियन्ताओं की मजबूरी थी।
1991 के बाद के प्रधानमंत्री या तो थोड़े-थोड़े समय के लिए रहे या कुछ की अपनी अलग आर्थिक दृष्टि ही नहीं थी और कुछ लम्बे समय तक रहे भी तो उन्होंने बने बनाए ढर्रे पर चलना ही उचित समझा। इसी का परिणाम है कि सरकारें अन्तरराष्ट्रीय मानकों पर संचालित बाजार को रोशन बनाए रखने के लिए वेतन बढ़ोतरी, मनरेगा और सब्सिडी जैसे माध्यम अपनाती रहीं। हुआ यह कि गरीबी, भुखमरी और कुपोषण के आंकड़ों को दुरुस्त करने के लिएखाद्य सुरक्षाजैसी योजना लागू करने की नौबत गयी तो उसका जुगाड़ भी कर लिया। कल लोकसभा में इससे सम्बन्धित विधेयक पारित हो गया, अगले दो दिनों में राज्यसभा में भी पारितहो जायेगा। जिन विपक्षी और सहयोगी पार्टियों ने संशोधन सुझाए और आपत्तियां दर्ज करवाईं वे भी बावजूद अपनी आपत्तियों के और संशोधन ना माने जाने के, मतदान के समय परोक्ष-अपरोक्ष रूप से समर्थन में देखी गई। कहते हैं इस विधेयक से देश की अस्सी प्रतिशत आबादी लाभान्वित होनी है, संभवतः इसीलिए अधिकांश पार्टियों ने यह सावचेती दिखाई कि किसी को मिलती रोटी को झटक लेने का आरोप उन पर ना लगे, इसे लागू करने का श्रेय तो उन्हें मिलना नहीं है।
रुपया और नामी-गिरामियों का चरित्र गिरता रहे, महंगाई बढ़ती रहे, आगे जो होगा वह आगे आने वाले की माथा-पच्ची-शासकों की मानसिकता ही ऐसी होती है, शायद इसीलिए मानव सभ्यता के इतिहास मेंसुकून का कालकभी नहीं रहा। जो अपने को बचाने में सफल रहा वही अब तक बचा रहा।
महात्मा गांधी ने जरूर अपना अलग और देखने-समझने में मानवीय आर्थिक ढांचा दिया, लेकिन उसे अभी तक मार्क्सवाद की तरह कसौटी पर नहीं लगाया गया। गांधी का अर्थशास्त्र आर्थिक ढांचे के साथ-साथ आदमी के मन के बदलाव की मांग करता है, उन के अर्थशास्त्र से बचते रहने का एक कारण शायद यह भी हो सकता है। लेकिन क्या बिना मन और मंशा को बदले किसी बड़े सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की उम्मीद की जा सकती है? अन्यथा जिसका, जैसा, जब बल पड़ेगा मोर्चा मार ले जायेगा, यही तो होना शुरू हो गया है। जंगल के जीव भी तो ऐसे ही अपने को बचाए रख रहे हैं। इस तरह कब तकमनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैके तमगे में सामाजिकता को बचाएं रख सकेंगे।

27 अगस्त, 2013

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