Wednesday, August 28, 2013

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥

लीलापुरुष कृष्ण भारतीय सनातन परम्परा में आराध्य रहे हैं और हैं। महाभारत कथा के अनुसार जब कृष्ण को लगा कि उनके सखा अर्जुन युद्धभूमि में अपने कर्तव्य से च्युत हो रहे हैं, उन्हें प्रेरित करने के लिए कृष्ण ने जो कुछ परामर्श दिया वहश्री मद्भगवद्गीता नाम के ग्रन्थ में संकलित है। इस ग्रन्थ को वैष्णव संतों ने इस युग की सबसे प्रेरक पुस्तक माना है। शीर्षक पंक्ति उसी ग्रन्थ के चौथे अध्याय के आठवें श्लोक की दूसरी पंक्ति है, इससे पूर्व की पंक्ति के साथ जो अनुवाद दिया गया उसका मतलब यही है-‘सज्जनों को सम्बल देने, दुर्जनों का विनाश करने और धर्म की स्थापना के लिए वे मनुष्य रूप में आते हैं।
भारतीय सनातन परम्परा में ईश्वर के अस्तित्व और उसके नकार की धाराएं साथ-साथ बही हैं। जो ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकारते हैं उनमें भी सगुण और निर्गुण दो तरह की परम्पराएं मिलती हैं। सगुण में भी करोड़ों रूपों की बात होती है। इन सभी धाराओं, धारणाओं और परम्पराओं में सामान्यतः एक-दूसरे के प्रति श्रद्धा चाहे ना देखी गई हो पर अनादर के भाव की लोक स्वीकृति नहीं देखी जाती रही है।
चौथे अध्याय के ही उक्त श्लोक से पूर्व का सातवां श्लोक जिसका दुरुपयोग पिछले पचास-साठ वर्षों से धड़ल्ले से होता देख सकते हैं। वह लोकप्रिय श्लोक है-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
गीताप्रेस, गोरखपुर की गीता में इस श्लोक का अर्थ यूं दिया गया है-‘हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब तब ही मैं अपने रूप को रचता हूं अर्थात् साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं।
इन श्लोकों को समझें तो धर्म को ही महत्त्वपूर्ण माना गया है, लेकिन धर्म का रूढ अर्थ या कहें अपनी सुविधा के लिए विशेष पूजा पद्धति को मान लिया गया है। असल में यह अर्थ है नहीं। गृहस्थों के लिए धर्म का अर्थ दिया गया है लौकिक, सामाजिक कर्तव्य और लौकिक सामाजिक कर्त्तव्य उन्हें ही कहेंगे जो प्रत्येक के निमित्त तय है और जिनकी एवज में जीवन यापन और परिवार पालन की सुविधाएं हासिल होती हैं। इर्द-गीर्द नजर दौड़ाएंगे तो बड़ी निराशा हाथ लगेगी। व्यापारी मुनाफा और मिलावटखोरी करते और कम तौलते नजर आते हैं तो सरकारी मुलाजिम या तो हाजिर नहीं मिलते, मिलते हैं तो बिना अतिरिक्त लिए-दिए कुछ करने को तत्पर नहीं होते। नेताओं का अपनेधर्मसे जैसे कोई लेना-देना ही नहीं है। कहा जा सकता है कि सभी ऐसे नहीं होते, नहीं होते तभीअपवादशब्द का जिक्र होता है। और जो ऐसे नहीं हैं उनके लिए यह कहा ही नहीं गया है।
ऐसे सभी धर्मच्युत लोगों में एक समान प्रवृत्ति जो इन वर्षों में देखी गई है वह यह कि इनमें से अधिकांश खुद के धर्मच्युत होने की ग्लानि से ग्रसित हैं और ऐसे लोग अपने इस ग्लानि-घाव को सहलाने के वास्ते इन्हें मन्दिर-मठों-मजारों पर बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते देखा जा सकता है। इनसे भी इनका भरोसा ना बने तोअभ्युत्थानमधर्मस्यसे प्रेरित सैकड़ों तथाकथित धर्मगुरुओं की सेवाएं उपलब्ध हैं जो परोक्ष-अपरोक्ष रूप से अपने को इसी श्लोक की उपज बताने से नहीं चूकते। ये अधिकांश धर्मगुरु, बाबा, पीर, कथावाचक आदि-आदि अपने भक्तों के ग्लानि-घावों को सहलाने की रकम वसूलते हैं और लगभग विलासिता का जीवन जीते हैं। कुछ के लिए विलासिता की जगह अय्याशी शब्द काम में लें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। कुछ संन्यासी और पीर ऐसे भी होंगे जिन्होंने धर्म को सचमुच धारण कर रखा है उनके लिए उक्त सब कहा भी नहीं जा रहा है। लेकिन लोक में धारणा अधिकांश के कियों से बनती है और भले लोगों को हाशिए पर धकेल दिया जाता है। तभी आए दिन आसाराम और नित्यानन्द आदि-आदि सुर्खियों में आते हैं और वे जो ज्यादा चतुर होते हैं, वे सावचेती से अपनेधंधोंको चलाए रखने में सफल हैं ही।

28 अगस्त, 2013

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