Monday, July 1, 2013

बीकानेर अरबन कॉ-ऑपरेटिव बैंक

शहर के व्यस्ततम बाजार तोलियासर भैरूंजी की गली में एक बैंक हुआ करता था--अरबन को-ऑपरेटिव बैंक। इस बैंक में कभी रौनक इसलिए भी रहती थी कि वहां पानी-बिजली के बिल जमा हुआ करते थे। जब यह बैंक शुरू हुआ तब इस बाजार में इतना भीड़-भड़ाका नहीं रहता था जितना आजकल रहता है।
आजादी के बाद सहकार की अवधारणा पर देश में बहुत-सी इकाइयां शुरू हुईं जिनमें बैंक, उद्योग, खुदरा सामान की दुकानें और अन्य कई प्रकार के समूह सक्रिय हुए। राजस्थान में सहकार के नाम पर दूसरे कई राज्यों से बहुत ज्यादा तो नहीं हुआ लेकिन रस्म अदायगी कहें या दिखावा, इस तरह की इकाइयों का पंजीकरण संचालन होता रहा है, बाकायदा एक महकमा है, मंत्री है, जिलेवार कार्यालय हैं। इस सबके बावजूद प्रदेश में सहकार की किसी इकाई को ढूंढ़ना बड़ा मुश्किल है।
कोई पैंतीस-चालीस साल पहले शुरू हुए उक्त बैंक के आरम्भ में हालात कोई बहुत अच्छे नहीं थे। फिर भी संचालकों के चुनावों में राजनीतिक गरमागरमी पूरी रहती थी। संचालकों का चुनाव अंशधारकों द्वारा किया जाता था। पानी-बिजली के बिल भरने शुरू हुए तो हालात ठीक-ठाक और ठीक-ठाक से बेहतर होते गये! धन दीखने लगा तो वे तमाम बुराइयां, जो धन लोभ में आती हैं, यहां भी मुंह मारने लगी। स्टेट बैंक बीकानेर एण्ड जयपुर के सेवानिवृत्त अधिकारी एसएन शर्मा जब तक मुख्य कार्यकारी अधिकारी थे तब तक तो बहुत कुछ कन्ट्रोल में था, बाद में लगातार इसकी साख कम होती गई। एक दिन ऐसा आया कि इसके बन्द होने की नौबत गई।
सहकारिता के आधार पर चलने वाले इस बैंक की महती जिम्मेदारी इसके अंशधारकों की थी। क्योंकि एक तरह से मालिक तो वे ही थे। लेकिन इसके बन्द होने के बाद से उनकी सक्रियता देखी नहीं गयी। इससे शक यह भी बनता है कि क्या उन सब ने मिल कर सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी को पहले मार कर खा लिया?
बन्द होने का जब हाका फूटा तब कुछ दिनों के लिए खाताधारी जरूर उद्वेलित हुए। सैकड़ों खाताधारियों का करोड़ों रुपया इसमें जमा था। जिनका कुछ ज्यादा था वे कोर्ट की शरण चले गये। कोर्ट की चाल का जिक्र करना अवमानना में सकता है। शेष सैकड़ों खाताधारी भाग्य को कोसने के अलावा कुछ नहीं कर पा रहे हैं, उनमें से कई स्मृतिशेष हो गये हैं!
लाभान्वितों का तीसरा समूह बैंक कर्मचारियों का है जो पिछले लगभग दो साल से अपने हितों के लिए कलक्टरी के आगे धरने की रस्म अदायगी निभा रहे हैं? रस्म अदायगी इसे इसलिए कहा है क्योंकि इनमें से अधिकांश आजीविका के लिए साइड में कुछ-कुछ कर भी रहे हैं। मीडिया का इन्हें इतना सहयोग जरूर है कि आए दिन कोई कोई अखबार इनके धरने के दिन की सूचना छाप देता है। पूछा इनसे भी जाना चाहिए कि जब इनकी नाव में छेद होने शुरू हुए तब वे क्यों आंखें मूंदे रहे? तब उन्हें यह क्यों नहीं लगा कि इस तरह यह नाव एक दिन डूब जानी है और वे खुद भी इसके साथ डूबेंगे!
अरबन बैंक के इस पूरे प्रकरण में अचम्भे वाली बात यह है कि शहर की इस बड़ी घटना पर यहां के कम और ज्यादा सक्रिय सभी राजनीतिक पार्टियों के नेता मौन हैं। मानो इससे उन्हें कोई लेना-देना नहीं है। शायद इसलिए कि इसके प्रभावितों से इनके वोटों पर कोई बड़ा फर्क पड़ने वाला नहीं है, या फिर कोई दाबाचींथी का मामला है?
सहकारिता विभाग या सरकार के अन्य सतर्कता विभाग इस प्रकरण पर ऐसे हैं जैसे यह घोटाला उनके कार्यक्षेत्र में ही नहीं आता है। इन्हीं सब के चलते आमजन के प्रतिवर्ष करोड़ों-अरबों रुपये खुर्द-बुर्द हो जाते हैं। माल जीमने वाले जीम जाते हैं और हाथ मलने वाले हाथ ही मलते रह जाते हैं।
बाद में ही सही अरबन बैंक कर्मचारी सचमुच गंभीर होते तो कुछ ऐसे अंशधारक जिन्हें इससे सचमुच तकलीफ हुई है और वे सैकड़ों खाताधारी जिनकी जमा पूंजी इससे प्रभावित है, इन दोनों समूहों की साथ ले संगठित होकर कुछ दबाव बनाते तो शायद सरकार के कानों पर जूं रेंगती। अन्यथा धरने के दिन की खबर लगने भर से कुछ होने जाने वाला नहीं है। यह चुनावी साल है, आंदोलन को संगठित होकर ढंग से चेतन करेंगे तो संभवतः सभी को इसका लाभ हो जाए!

1 जुलाई,  2013

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