बीकानेर के केन्द्रीय सुधारगृह में कल दर्दनाक वाकिआ पेश आया। एक कैदी ने बारी-बारी से तीन अन्य कैदियों पर ईंट से ताबड़-तोड़ वार किए और उन्हें ढेर कर दिया। इन जेलों में छिट-पुट बदमजगियां आए दिन होती हैं, जिन्हें सुर्खियां नहीं मिलती। आरोपी का आरोप है कि ये लोग जब- तब उसे पागल कह कर सम्बोधित करते थे। रोज-रोज की इस किच-किच से तंग आकर उसने ऐसा किया।
दुनिया की अधिकांशतः खासकर तीसरी दुनिया के देशों की जेलों की स्थितियां मानवीय नहीं हैं। भारत की गिनती भी ऐसे ही देशों में आती है। आए दिन ऐसी खबरें पढ़ने को मिलती हैं कि इन जेलों में उनकी कुल क्षमता से पांच से दस गुना अधिक कैदी ठूंसे हुए हैं। देश की सबसे बड़ी और अच्छी मानी जाने वाली दिल्ली की तिहाड़ जेल भी इससे अछूती नहीं है।
लोक में यह सामान्य धारणा है कि यदि किसी से अपराध हो गया है तो उसे आजीवन अपराधी मान लिया जाय। उससे वाकिफ सभी निगाहें उसको उसी रूप में देखती हैं, परिचय भी उसके उसी रूप का दिया जाने लगता है। कोई बहुत दृढ़-इच्छाशक्ति वाला ना हो तो उसके द्वारा किए गये या अनायास हो गये उस एक अपराध की कड़ी अन्य अपराधों की कड़ियों से जुड़ती जाती है और वह आजीवन अपराधी होने को अभिशप्त हो जाता है।
देश के तथाकथित सुधारगृहों के प्रशासन में इसी समाज के ऐसी ही सोच के अधिकांश होते हैं और ऐसे प्रशासनिक अमले का व्यवहार कैदियों के साथ वैसा ही होता है जैसा कि ऊपर आमजन के हवाले से जिक्र किया गया। जेल के बाहर हो या जेल के अन्दर ऐसा व्यवहार सुधार की जगह बिगाड़ का काम ही करता है। ऊपर से सरकारी महकमों में फैला भ्रष्टाचार कोढ़ में खाज का काम करता है।
इन जेलों से आने वाले अधिकृत-अनधिकृत समाचारों से गुजरें तो आभास होता है कि यह सुधारगृह ना केवल अपराधियों के दड़बे बन गये हैं बल्कि अपराध प्रशिक्षण केन्द्रों के रूप में भी काम करने लगे हैं। एक से अधिक गिरोह कारस्तानियों में लगे रहते हैं, गाहे-बगाहे आपस में इनकी मुठभेड़ होती रहती हैं। कोई ‘भला कैदी’ चाहे तो भी तटस्थ या गुट निरपेक्ष नहीं रह सकता। भ्रष्टाचार के चलते सभी वर्जित वस्तुएं इन्हें हासिल होती रहती है। और तो और शातिर किस्म के माने जाने वाले अपराधी जेल से ही बाहर की दुनिया में अपने गिरोह का संचालन-दिग्दर्शन करते रहते हैं। बीकानेर में हाल में हुई लूट की दो-तीन घटनाओं की जांच में ऐसे संकेत मिले हैं, जिनमें इसी जेल में बन्द शातिरों पर शक की सूई फड़फड़ाती है।
कल की घटना के आरोपी को विक्षिप्त बताया जा रहा है। स्वास्थ्य विज्ञान के हवाले लोक में यह प्रचलित है कि प्रत्येक इंसान एक हद तक विक्षिप्त होता है। अन्तर सिर्फ मात्रा का होता है, और इस मात्रा में घटत-बढ़त उसे मिल रहे माहौल पर निर्भर करती है। अधिकांशतः तो इस पर भी निर्भर करता है कि अपने इर्द-गिर्द उसे क्या और कैसा व्यवहार मिल रहा है। इस पूरे कथोपकथन को कहने का कुल जमा भाव यही है कि समाज में कुछ भी बुरा घटित होता है उसकी सामूहिक जिम्मेदारी पूरे समाज की होती है और जब सभी इस तरह से विचारने लगेंगे तभी ये बदमजगियां, आपदाएं और विपदाएं कम होंगी। जब तक किसी किसी एक को अपराधी मानने की प्रवृत्ति समाज में बनी रहेगी तब तक ऐसी बदमजगियों को बढ़ावा मिलता रहेगा। फिर यह बदमजगियां चाहे प्राकृतिक हों या मानव-जनित।
29 जून,
2013
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