Monday, July 22, 2013

उमरदीन उर्फ अमरू के बहाने

कल के कुछ अखबारों में खबर थी कि वरिष्ठ हॉकर उमरदीन गुर्जर का देहान्त हो गया है। उमरदीन को उनके परिचित अखबारी पाठक अमरूजी या अमरू नाम से जानते थे। अमरू को और उस समय के उन जैसों को केवल हॉकर मानना उनके योगदान को कम करके आंकना है। अमरू, कुंजीलाल गहलोत के उन शुरुआती सहयोगियों में से थे, जिन्होंने मिशनरी प्रयासों से शहर के पढ़े-लिखों में अखबार और पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने की आदत डाली।
आजादी के समय लगभग अखबार और पत्र-पत्रिकाओं के शहर में कोई विधिवत् विक्रेता नहीं थे। जो लोग बाहर से शिक्षा ग्रहण करके आए थे उनमें से अखबार पढ़ना जिनकी आदत बन चुका था वे डाक से अखबार मंगवा पढ़ कर अपना काम चला लेते थे। दूसरे-तीसरे दिन मिलने वाले इन अखबारों को वे यह मान कर संतोष कर लेते थे किनहीं बिचे तो ठीक है।ऐसे ही लोगों में एक कुंजीलाल गहलोत भी थे जो पेशे से फोटोग्राफर थे और प्रतिष्ठित भी थे। महात्मा गांधी रोड पर उनकी दुकान हुआ करती थी। उन्हें लगा कि क्यों अखबार विक्रेता का अतिरिक्त काम करके शहर की बौद्धिक सेवा की जाय। उन्होंने अखबार मंगाने शुरू किए और खुद पढ़े-लिखों को ढूंढ कर पहले निःशुल्क अखबार देकर पाठक बनाया। तब यह काम अच्छी कमाई का नहीं था। इसको अतिरिक्त काम के रूप में ही किया जा सकता था। कुंजीलाल गहलोत ने ऐसे लोगों की तलाश की जो अखबार आने के समय इस काम को अंजाम दे सकते थे। तब अखबार दिल्ली से आने वाली रात्रि रेलगाड़ी में ही आते थे। उसके आने का समय अलग-अलग काल में आठ से ग्यारह के बीच था।
गो पालन में लगी गुर्जर जाति के युवा उस समय फुरसत में होते थे। गायों का काम तड़के निपटा लेने के बाद दोपहर बाद तक उनके पास कोई काम नहीं होता था। बहुत थोड़े अखबारों के साथ तब गिन्नाणी से लेकर शहर के दूसरे किनारे लक्ष्मीनाथ मन्दिर, नत्थूसर गेट, जस्सूसर गेट तक के गिने-चुने पाठकों तक यह युवा जिनमें तब अधिकांश यह गुर्जर ही होते थे, उनमें अमरू भी एक थे। ये लोग तब यह काम अल्प वेतन में इसलिए कर लेते थे, क्योंकि यह उनकी आजीविका का अतिरिक्त साधन था।
कुंजीलाल तब उर्दू, सिन्धी के अखबार नहीं मंगाते थे। देश का बंटवारा होने के बाद शहर में बहुत से उर्दू-सिन्धी भाषी लोग भी गये, उनमें से एक थे सोहनलाल पंजाबी, जो गुरुनानक मार्केट में कपड़े का व्यवसाय करते थे। पाकिस्तान से आए तो उर्दू अखबार पढ़ने की आदत लेकर आए। उन्होंने भी ठीक कुंजीलाल गहलोत की तर्ज पर उन अखबारों-रिसालों को मंगवाकर बेचना शुरू किया और गैर अंग्रेजी-हिन्दी पाठकों को बौद्धिक खुराक पहुंचाने का प्रयत्न किया। उस समय के उर्दू-सिन्धी-पंजाबी के पाठक उन्हें आज भी जरूर याद करते होंगे।
अखबार-रिसालों का काम जैसे-जैसे मिशन से व्यापार में तब्दील होता गया वैसे-वैसे यहां के इस ढांचे में भी बहुत परिवर्तन गया। ना कुंजीलाल गहलोत रहे और ना ही सोहनलाल पंजाबी। उनके उत्तराधिकारियों की इस धन्धे में या तो रुचि नहीं रही या वे इसे सहेज नहीं पाए। अखबार विक्रेता और अखबार बांटने वालों के बीच का परम्परागत रिश्ता हॉकर-डीलर में तब्दील हो गया।
जो संस्कार इन अखबार बांटने वालों को गहलोत और पंजाबी ने दिए उन संस्कारों के अन्तिम वाहकों में यह अमरू भी एक थे। उन्हें अखबार के सामान्य और विशिष्ट पाठकों का अन्तर पता था। ऐसे विशिष्ट पाठकों का सम्मान करना और ख्याल रखना उन पाठकों ने अमरू की तीसरी पीढ़ी में महसूस किए।
लगातार तीस वर्षों तक अमरू और अमरू के परिजनों से अखबारी सेवा लेने वालों का अनुभव है कि प्राकृतिक प्रतिकूलताओं यथा आंधी-तूफान, बरसात में भी ये समय पर अखबार पहुंचाते और पारिवारिक खुशी-गमी में भी कभी नागा नहीं करते थे।
ऐसे ही संस्कारों की बानगी अमरू के देहान्त पर उनके परिजनों ने दी। शनिवार की शाम को वे पांच बजे गुजरे। देर रात डेढ़ बजे तक सुपुर्दे-खाक करके घर लौटे अमरू के बेटे-पोते-भतीजे जो अब बन तोहॉकरगये हैं लेकिन संस्कार नहीं भूले। अपने पाठकों के दरवाजों पर रविवार तड़के हमेशा की तरह लगभग समय पर पहुंचे। नयी पीढ़ी के अधिकांश हॉकरों में अमरू जैसी पेशेवर निष्ठा का अभाव संवेदनशील पाठकों को अच्छा नहीं लगता है।

22 जुलाई,  2013

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