Thursday, March 7, 2013

गहलोत का बजट


कहा जाता है कि गहलोत यदि राजनीतिज्ञ नहीं होते तो जादूगर होते! जादूगर और बाजीगर दोनों ही शब्द फारसी से आए हैं और लगभग समानार्थक हैं। लगभग इसलिए कहा कि जादूगरी के अर्थ में धोखा और चालाकी नहीं है और बाजीगरी में जादू के साथ-साथ चालाकी और धोखा भी है। इस बजट को लेकर प्रमुख विपक्षी भाजपा जो मानती है उसका मोटामोट मानी यही है कि यह बाजीगरी है। वे कहते हैं कि गहलोत को सचमुच कुछ करना होता तो पिछले चार बजटों में ऐसी घोषणाएं करते। अब की हैं तो उसका क्रियान्वयन कब करेंगे, छः महीने बाद तो आचार संहिता लग जायेगी। एक तरह से समझा जाय तो उनकी बात में दम लगता है। और यह धारणा भी बनती है कि गहलोत सचमुच कुछ करना चाहते तो इस तरह की घोषणाएं उन्हें पिछले बजट में कर देनी चाहिए थी। गहलोत को इस तरह के बजट से सचमुच लाभ उठाना था तो सबसे अच्छा अवसर उनके लिए 2012 का बजट ही था। लेकिन गहलोत जिस तरह की राजनीति करते रहे हैं और करने में विश्वास रखते हैं उसमें जादूगरी का पुट तो देखा गया लेकिन बाजीगरी परिलक्षित कभी हुई नहीं। इसलिए मान सकते हैं कि या तो गहलोत से यह चूक हुई कि इस तरह का बजट 2012 में नहीं दिया या यह भी कहा जा सकता है कि पिछले वर्ष इस वर्ष जैसी अनुकूलताएं नहीं थी। अन्यथा गहलोत की मंशा हमेशा लोकहित की रही है। उनके द्वारा अब तक लागू सभी लोकहितकारी और फ्लैगशिप योजनाएं इसका प्रमाण है| इन सभी योजनाओं में जहां कहीं असफलता है उसका कारण इन्हें क्रियान्वित करने वालों की और संसाधनों की कमी माना जा सकता है। सभी योजनाओं के क्रियान्वयन में कमी का फीडबैक मिला होगा तभी इस बजट में उन्होंने डेढ़ लाख नौकरियां देने के प्रस्ताव रखे हैं। इस तरह के रोजगार प्रावधान दरअसल फ्लैगशिप योजनाओं को शुरू किये जाने से पहले आने चाहिए थे। लोक जुड़ाव के जितने विभाग यथा चिकित्सा और स्वास्थ्य, शिक्षा और गृह, इन सभी में, बरसों से पर्याप्त स्टाफ नहीं है इसी के चलते फ्लैगशिप योजनाओं के परिणाम उम्मीदों से कम मिलते रहे हैं। जनता में भी इस सब को लेकर रोष तो बनता ही है।
गहलोत पर लोकलुभावन बजट का आरोप इसलिए नहीं लगाया जा सकता क्योंकि देखा गया है कि वे प्रचार से ज्यादा काम में विश्वास रखते हैं। गहलोत की इस मानसिकता का बुरा असर यह हो रहा है कि पार्टी के लोग भी यह स्थापित करने में असफल रहे हैं कि गहलोत का काम वसुंधरा से बेहतर है, जो है भी। क्योंकि सीधे चुने जाने वाले लोकतंत्रों में प्रचार का महत्व काम से कम नहीं होता है। सपाट वाक्य में बात करें तो गहलोत काम करते दीखते हैं और वसुन्धरा राज करती दीखती थी।
वर्ष के अन्त में चुनाव हैं और जितनी घोषणाएं की गईं हैं उन्हें चुनाव में गहलोत तभी भुना पायेंगे जब वे क्रियान्वित होने लगेंगी। बहुत बाधाएं हैं, सबसे बड़ी बाधा भ्रष्टाचार, अकर्मण्यता और दक्षता की कमी है जिसके चलते सभी योजनाएं सिरे नहीं चढ़ती| नौकरियों को ही लें तो डेढ़ लाख नौकरियों की घोषणा है। अगर यह प्रक्रियाफुल प्रूफनहीं हुई तो कोर्ट के धक्के चढ़ जायेगी। छठे वेतन आयोग का मामला है, इसे लागू करते हुए बाजीगरी तो वसुन्धरा ने की थी| उन्होंने तो इसे केन्द्र के समान पूरी तरह लागू किया और जितने भी लाभ दिये वे 2006 की बजाय 2008 से दिये| कर्मचारियों में रोष कायम रहा। चुनाव करवाने वाले ये कर्मचारी इसीलिए बाजीगरी से बाज नहीं आते हैं, इसे गहलोत से ज्यादा कौन समझ सकता है।
07 मार्च, 2013

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