प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति
मार्कण्डेय काटजू का कहना है कि मीडिया क्षेत्र को व्यवसाय के रूप में अपनाने वालों के लिए न्यूनतम योग्यता तय होनी चाहिए। उनके इस कथन पर इन दिनों टीवी-अखबारों में जोरदार बहस छिड़ी हुई है। कल के जनसत्ता में कार्यकारी सम्पादक ओम थानवी का और आज के दैनिक भास्कर के किसी संस्करण (बीकानेर के में नहीं) में कवि-पत्रकार प्रियदर्शन का लेख है, दोनों ने बहुत सलीके से न्यायमूर्ति
के इस कथन का विरोध किया है। पत्रकारिता को व्यवसाय के रूप में अपना चुके और रुचि रखने वालों को इन्हें जरूर पढ़ना चाहिए। दोनों लेखों के लिए लिंक फेसबुक पर उपलब्ध हैं।
न्यायमूर्ति की कुछ बातें तार्किक तो कुछ बातें घोर अतार्किक लगती रही हैं। वे न्यायिक पेशे से आये हैं और तब के उनके कई फैसले चर्चा में भी रहे हैं। लेकिन जब से उन्हें प्रेस परिषद का अध्यक्ष बनाया गया, तब से ही वे विवादों में रहने लगे हैं। जो बात वे मीडिया के बारे में कहते हैं कि वहां योग्य लोगों की कमी है, या अन्य क्षेत्रों के अनुशासनों और विषयों पर भी जब वे टिप्पणी करते हैं तो वे खुद शायद अपना मूल्यांकन करना भूल जाते हैं कि वह उस विषयविशेष पर टिप्पणी करने की योग्यता रखते हैं कि नहीं। उनके कथनों से लगता है कि जो कह रहे हैं उनके अनेक सन्दर्भों की जानकारी उन्हें खुद को है ही नहीं या आधी-अधूरी है।
इसमें दो राय नहीं कि मीडिया में योग्य लोगों की कमी है। पत्रकारिता के ही क्षेत्र में क्यों बल्कि उन्हें चलाने वाले मीडिया हाउस के मालिक भी इस व्यवसाय के योग्य हैं कि नहीं, यह भी एक बड़ा प्रश्न है। अखबारों और टीवी चैनलों के अधिकांश नये मालिकों या मालिकों की नई पीढ़ियों को इस व्यवसाय के अयोग्य कहा जा सकता है। लेकिन यह व्यवसाय भी उसी समाज का हिस्सा है जिस समाज के अन्य व्यवसायों में अयोग्यों का या व्यावसायिक मूल्यहीनता का बोलबाला है, फिर कहा जा सकता है कि मीडिया से ही मूल्यों की उम्मीद क्यों की जा रही है? लोकतंत्र का चौथा पाया मीडिया खुद बना या किसी ने उसे थरपा है पता नहीं लेकिन उसका महत्त्व चौथे पाये से कम नहीं है। इसलिए बार-बार यह उम्मीदें की जाती रही हैं कि कम से कम मीडिया अपने व्यावसायिक मूल्यों पर कायम रहे और वहां का काम करने वाले लोग योग्य हों।
सत्तारूप में परिवर्तित होते इस व्यवसाय में वे सब बुराइयां आती जा रही हैं जो अन्य सभी सत्तारूपों में आ गई हैं। अब तो पत्रकारिता की योग्यता ही यह मान ली गई है कि कौन कितनी कमाई करवा सकता है या कमाई में सहायक हो सकता है। कोई भी व्यवसाय यदि लालच में परिवर्तित होता जायेगा तो उसका यही हश्र होगा जो मीडिया का होता चला जा रहा है। रही कोई योग्यता तय करने की बात तो तमाम क्षेत्रों के डिग्री और डिप्लोमाधारियों
के परखी लगा कर देख लें कि वे सचमुच में कितने योग्य हैं। बात समाज में बदलाव की है, मूल्यों की स्थापना की है, दक्षता की है। इनकी जरूरत बताने और स्थापित करने का एक माध्यम मीडिया भी हो सकता है, इसलिए शायद न्यायमूर्ति
काटजू, ओम थानवी और प्रियदर्शन के अलावा भी अन्य कई चिन्तित हैं। काटजू की चिन्ता जायज है पर चूंकि वे सम्बन्धित क्षेत्रों को पूरी तरह जानते-समझते नहीं हैं अतः सही उपाय उन्हें नहीं सूझ रहा है उपाय की ओर ओम थानवी और प्रियदर्शन ने संकेत किया है यह प्रश्न खड़ा करके कि समाज को समझने की डिग्री कहां से आयेगी?
18 मार्च, 2013
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