Thursday, March 21, 2013

हिचकोले खाता संप्रग-दो


संप्रग-दो यानी प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह की सरकार का दूसरा कार्यकाल हिचकोलों का कार्यकाल कहा जा सकता है। जिस पहले कार्यकाल की बिना पर मनमोहनसिंह और संप्रग को दूसरा कार्यकाल दिया गया, लगता है उस पर ये चाह कर भी खरे नहीं उतर पा रहे हैं। सौदों-समझौतों में लगातार खुलती अनियमितताएं जहां सरकार की छवि को बदनुमा किये जा रही हैं वहीं अन्ना हजारे, अरविन्द केजरीवाल और रामदेव की सक्रियताएं और उनसे निबटने के तरीकों से सरकार की लगातार फजीहत भी हुई है।
वैसे तो संप्रग-एक के काल में भी तब के मुख्य घटक वामपंथियों ने परमाणु समझौते के मुद्दे पर समर्थन वापस लेकर सरकार को संकट में डाला लेकिन जैसे तैसे तब उसने कार्यकाल पूरा कर लिया। सांसदों की खरीद-फरोख्त के अलावा अन्य कोई बड़ा वित्तीय आरोप संप्रग-एक पर नहीं लगा था लेकिन संप्रग-दो पर लगातार घोटालों और वित्तीय अनियमितताओं के आरोप लगते रहे हैं| हालांकि इन सब आरोपों से प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा भी बरी नहीं पाई जा रही है, क्योंकि 2004 तक अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग की सरकार थी और कई अनियमितताओं की शुरुआत या तो तब से मानी जा रही है या राजग ने अपने कार्यकाल में उन्हें उसी तरह हो जाने दिया। संप्रग-दो जिस दूसरे मोर्चे पर लगातार मुठभेड़ में फंसी हुई है, वह है, सरकार चलाये रखने के लिए संसद में जरूरी बहुमत जुटाए रखना। संप्रग के घटकों में कभी तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) तो कभी तृणमूल कांग्रेस बीच मझधार में छोड़ती रही है तो अब तक सभी खोटे-खरों में शामिल द्रविड मुनेत्र कषगम (डीएमके) ने श्रीलंकाई तमिलों के मुद्दे पर झटके में समर्थन वापस ले लिया। द्रमुक को पता है कि तमिलनाडु में उसकी राजनीति इसी तरह के झटकों से कायम रह सकती है, उन्हें देश की विदेश नीति और उनका कहा करने से पड़ोसी देशों को शह मिलने मिलने से कोई लेना-देना नहीं है। भारत सरकार की समस्या यह है कि द्रमुक की बात माने तो ठीक उन्हीं तर्कों पर चीन और पाकिस्तान, कश्मीर और देश के उत्तर-पूर्व के अन्य हिस्सों की अशान्ति पर भारत को घेर सकते हैं। खैरतमिल अस्मिताद्रमुक, अन्नाद्रमुक और वहां की अन्य क्षेत्रीय पार्टियों के वर्चस्व का मुद्दा है, उन्हें अपना अस्तित्व देश से ऊपर लगता है। देखने वाली बात यह होगी कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बाहरी समर्थन की बैसाखियों के सहारे यह सरकार किस तरह अपना कार्यकाल पूरा कर पाती है। वैसे सपा-बसपा दोनों की चलनी में इतने छेद हैं कि संप्रग उन में से जैसे तैसे सरकार के कार्यकाल को गुजार लेगी। दूसरी ओर आश्चर्यजनक ढंग से इस मुद्दे पर तृणमूल कांग्रेस सरकार के साथ खड़ी दिखी है।
सपा, बसपा और तृणमूल इन तीनों ही पार्टियों को आशंका है कि यदि समय पूर्व चुनाव हुए तो लोकसभा में उनकी गिनती कहीं कम हो जाये। पं. बंगाल में तृणमूल का कांग्रेस से गठबंधन टूट चुका है, अकेले दम पर लोकसभा में वह अपनी वर्तमान सदस्य संख्या कायम रख पायेगी, उम्मीद कम है। उत्तरप्रदेश में अखिलेश की लगातार गिरती साख से मुलायम आशंकित हैं तो मायावती को नहीं लगता कि उप्र के पिछले विधानसभा चुनाव के बाद बसपा के पक्ष में कुछ अनुकूलताएं बनी हैं। देश स्तर पर प्रमुख विपक्षी दल भाजपा की बात करें तो खुद उसकी साख अब ऐसी नहीं रही कि कांग्रेस के कमजोर पक्षों का वह विकल्प बन सके। ऐसा उसके वरिष्ठतम नेता आडवाणी ने खुद माना है। अतः लगता यही है कि मनमोहनसिंह की सप्रंग-दो अपना यह कार्यकाल तो पूरा कर ही लेगी।
21 मार्च, 2013

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